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वज्जालरंग
११-दिव्व-वज्जा (दैवपद्धति) १२०. जब मनुष्य का कोई कार्य भाग्याधीन रहता है तब अर्थ, विद्या, पौरुष और अन्य सभी सहस्रों गुण व्यर्थ हो जाते हैं ॥ १ ॥
१२१. *प्रशंसनीय प्रयोजन (शस्तार्थ) में पड़े हुये (लगे हुये) मनुष्य को भी बीच में कुछ वह कार्य आ जाता है जिसे वह न कह सकता है, न सह सकता है और न छिपा सकता है ।। २ ।।
१२२. दैव के पराङ मुख होने पर यदि पुरुष विषम विवर में प्रवेश करता है, समुद्र को पार करता है और व्यवसाय करता है तो भी उसका फल नहीं पाता ।। ३ ।।
१२३. मनुष्य का भाग्य विपरीत होने पर उसके गुणों का मूल्य नहीं रह जाता, बान्धव साथ छोड़ देते हैं, प्रियजन विरक्त हो जाते हैं और व्यवसाय की समाप्ति नहीं होती (उसका काम पूरा नहीं हो पाता है) ॥ ४॥
१२४. मनुष्य का भाग्य विपरीत हो जाने पर वह जिस-जिस डाली को हाथ से पकड़कर विश्राम करता है, वही-वही तड़तड़ा कर टूट जाती है ॥ ५ ॥
१२५. जब मनुष्य का भाग्य विपरीत हो जाता है तब वे वे आपत्तियाँ सिर पर पड़ती हैं जिन्हें न तो आँखों से देखा गया है और न मन में जिनकी कल्पना ही की गई है ॥ ६ ॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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