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वज्जालग्ग
१५०. जिस प्रकार वृक्ष जड़ों को नीचे और पत्रों को मस्तक पर धारण करते हैं, उसी प्रकार यदि प्रभु-गण भी जड़ों (मूों) का अनादर
और सुपात्रों (विद्वानों) का सम्मान करते, यही क्या पर्याप्त (समुचित) नहीं था ? ॥ ४॥
१६-सेवय-वज्जा (सेवक-पद्धति) १५१. हे नरनाथ ! चारित्र्य-शून्य सेवकों को जो दुःख झेलना पड़ता है, वह तुम्हारे शत्रुओं को मिले; अथवा उन्हें भी न हो ॥१॥
१५२. दरिद्र सेवक भूमि पर शयन करता है, जीर्ण चीर बाँधता है, ब्रह्मचर्य का पालन करता है और भिक्षा माँगता है। यद्यपि इस प्रकार वह मुनियों का आचरण करता है परन्तु (मुनियों के समान) उसे धर्म नहीं प्राप्त होता है ॥ २ ॥
१५३. यदि संयोग से सेवक-जनों को किसी प्रकार सुख भो मिलता है, तो वह क्षपणक (जैन साधु) के स्वर्गारोहण के समान अनेक कष्ट झेलने पर ॥ ३॥
१५४. *हे राजन् ! तुम धर्म में लगे हो, रहने दो मैं इस समय जाता हूँ। प्रभो ! चित्र-लिखित हाथी के समान तुम्हारा दान (अथवा मद जल) ही नहीं देखा गया है ॥ ४ ॥
१५५. हे नरनाथ ! सभी सेवकों के लिये तो तुम उस कटहल के समान हो, जिसका फल बहुत ही निकट रहता है, परन्तु मैंने जब याचना की तो ताल के वृक्ष बन गये ॥ ५ ॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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