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वज्जालग्ग
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१०२. मनस्वियों का मन अन्तिम दशा में भी उन्नत ही रहता है। अस्त होते समय भी सूर्य की किरणें ऊपर ही चमकती हैं ।। १२ ॥
१०३. जब तक धीर पुरुष कोई कार्य करना स्वीकार नहीं कर लेते, तभी तक मेरुपर्वत ऊँचा है, समुद्र दुस्तर है और तभी तक कार्य-सिद्धि में बाधायें रहती हैं ॥ १३ ॥
१०४. आकाश तभी तक विस्तीर्ण है, समुद्र तभी तक अति अगाध है और कूलशैल तभी तक बड़े हैं, जब तक उनकी तुलना धीरों से नहीं की जाती ॥ १४ ॥
१०५. साहसी पुरुषों के लिए मेरु तृण के समान, स्वर्ग घर के आँगन के समान, आकाश हाथ से छुये हुए के समान और समुद्र क्षुद्र नदियों के समान हो जाता है ॥ १५ ॥
१०६. *जो पहले साथ था या बना था या बिगड़ गया था एवं अब जो बन रहा है या बिगड़ रहा है या साथ दे रहा है, उस भाग्य को छोड़ कर धीर पुरुष समारब्ध कार्य को कर डालता है ॥ १६ ॥
१०-साहस-वज्जा (साहस-पद्धति) १०७. साहस का अवलम्बन करता हुआ मनुष्य मनोवांछित फल प्राप्त करता है-इस में सन्देह नहीं । राहु के केवल मस्तक ही था (शरीर हाथ, पाँव आदि नहीं थे) फिर भी चन्द्रमा को निगल गया ॥ १ ॥
१. यह गाथा शीलांककृत चउपन्नमहापुरिसचरियं में भी है (२९।३)। * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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