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प्रकाशकीय वक्तव्य ।
खास करके जनसे श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार लिखित श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रंथोंके समालोचना विषयक लेख प्रकाशित हुए हैं, तबसे दिगम्बर जैन समाजमें त्रिवर्णाचार ग्रंथके कई प्रसंगों को लेकर बहुत वादानुवाद चल रहा है ।
लगभग चार वर्ष हुए हमारे इस कार्यालय के संचालक स्वर्गीय पं० उदयलालजी काशलीवालने यह विचार किया कि, " संस्कृत न जानने वाले स्वाध्याय प्रेमी भाई अवश्य ही इस बात के इच्छुक होंगे कि यदि त्रिवर्णाचार ग्रंथका भाषानुवाद होता तो हम भी उसकी स्वाध्याय कर उन विषयोंको विचार सकते । " अतः स्वर्गीय पंडितजीने हमारे साथ विचार करके इस ग्रंथको हिंदीअनुवाद - सहित प्रकाशित करना निश्चय किया और अनुवादका कार्य श्रीयुक्त पंडित पन्नालालजी सोनी को सौंपा।
इस ग्रंथका छपना प्रारंभ होने के कुछ ही दिनों बाद हम वहीं रहने के विचारसे अपने देश हरदा चले गये और वहां खादी बनाने का कारखाना जारी कर दिया । पश्चात् ग्रंथके कुछ ही फार्म छपे थे कि मित्रवर्य पंडित उदयलालजी कासलीवालका स्वास्थ्य खराब हो चला और इसलिये हमने उन्हें वायु परिवर्तनार्थ तथा औषधोपचारार्थ हरदा बुला लिया। वे वहां एक माह रहे। वहांसे औषधोपचारार्थ वर्धा और फिर नाशिक गये, पर आराम न हुआ । और दुःख है कि नाशिकमें ही उनका स्वर्गवास हो गया । उस महान साहित्य-सेवीके वियोगसे इस कार्यालयको जो क्षति पहुंची है वह इसके द्वारा उनके समय में प्रकाशित अनेक ग्रंथोंके पाठकों से छिपी न होगी । खास आपके द्वारा अनुवादित श्रीनेमिपुराण, भक्तामर कथा ( मंत्र-यंत्र - सहित ), नागकुमारचरित, यशोधरचरित, पवनदूत ( काव्य ), खुदर्शनचरित, श्रेणिकचरितसार, और सुकुमालचरितसार ग्रंथ इस कार्यालय द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं । श्रीपांडवपुराण, सम्यक्त्वकौमुदी और चन्द्रप्रभचरितके नवीन अनुवादोंका ऐसे अच्छे रूपमें प्रकाशित होना भी आपहीके उद्योगका फल है । इनके सिवाय उक्त स्वर्गीय पंडितजी द्वारा अनुवादित अथवा लिखित श्रीभद्रबाहुचरित, धन्यकुमारचरित धर्मसंग्रहश्रावकाचार, आर/धनासारकथाकाष, नेमिचरित ( काव्य ), संशयतिमिरप्रदीप, वनवासिनी आदि कई जैन ग्रंथ भिन्न २ प्रकाशकों और व्यक्तियों द्वारा प्रकाशित हुए हैं। अवश्य ही मित्र • वर्य पं० उदयलालजी काशलीवालके उत्तर अवस्था के विचारोंसे हम सहमत नहीं थे और उन विचारोंके परिणाम-स्वरूप उनकी उस कृतिसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं था, तथापि इस कार्यालय द्वारा उन्होंने दि० जैनसाहित्य एवं दि० जैन समाजकी जो अमूल्य सेवा की है उसे हम कदापि नहीं भूल सकते और उसके लिये यह कार्यालय तथा दि० जैन समाज उनका सदैव ऋणी रहेगा।
मित्रवर्य पं० उदयलालजीके स्वगवास होजाने और बादमें डेढ़वर्षतक हमारे यहां न रहने के सबब इस ग्रंथ के प्रकाशित होने में इतना ज्यादा विलम्ब हो गया । इसके लिये हम पाठकों से क्षमाप्रार्थी हैं।
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