Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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बौद्धका पक्ष लेकर
पुनः पूर्वपक्षीका स्वसिद्धान्त अवधारण है कि जब जैनोने सदृश परिणामको प्रत्येक व्यक्तिमें नियत मान लिया है तो स्याद्वादी विद्वान् करके सहर्ष स्वीकार किये गये प्रत्येक व्यक्तियोंमें नियत हो रहे सदृश परिणाम में भी पुनः उस सदृश परिणामसे सहितपनेकी प्राप्ति होना आवश्यक पड गया अर्थात्- - जैसे व्यक्तियोंमें सदृशपरिणाम ठहर रहा माना गया है, यों सदृश परिणाम भी विशेष व्यक्तिरूप जब हो गया तो सदृश परिणामरूप व्यक्ति में भी पुनः सादृश्य धरना चाहिये और तैसा होने पर वे दुबारा ठहरे हुये सदृश परिणाम भी घट, पटके, समान व्यक्तिस्वरूप बन बैठेंगे। उनमें पुनः तीसरे सदृश परिणामोंसे सहितपना धरना आवश्यक हो जायगा । ऐसी दशामें एक एक व्यक्तिमें ठहर रहे अपने अपने उन समान परिणामों में भी यह सादृश्य इस सादृश्यके समान है, इस ढंगका सादृश्य ज्ञान उपजाने के कारण पुनरपि अन्य अन्य सदृश परिणामोंके सद्भावका प्रसंग आनेसे अनवस्था दोष होगा । यदि जैन जन उन दुबाराके सदृश परिणामोंमें तीसरे समान परिणामों के विना भी यह इसके समान है इस प्रकार समान ज्ञानकी उत्पत्ति होना मान लेंगे, तब खण्ड, मुण्ड, शावलेय, बाहुलेय, आदिक गौकी विशेष व्यक्तियोंमें भी उस सादृश्य परिणामके बिना ही " समान है " समान है, इस आकार वाले ज्ञान की उत्पत्ति हो जायगी । तैसा हो जानेसे मूलमें ही सदृश परिणामकी कल्पना करना अनुचित ही पडता है, इस प्रकार कोई एकदेशी कह रहा । अब आचार्य कहते हैं कि उस किसी बौद्धके यहां वैसा सादृश्यपरिणामकी कल्पना करना भी असिद्ध हो जायगा । क्योंकि उनको भी इसी दोषका प्रसंग आता है । कारण कि प्रत्येक व्यक्तियोंमें नियत हो रहे बहुत वैसादृश्योंमें भी " यह इससे विलक्षण है। " यह इससे विसदृश है " इत्याकारक विसदृशज्ञानों की उत्पत्ति हो जानेसे अन्य दूसरे वैसादृश्योंकी कल्पना करते हुये अनवस्था दोष अवश्य होगा । भावार्थ - बौद्धोंने व्यक्तियोंमें जैसे वैसादृश्य प्रत्यय करानेका उपयोगी वैसादृश्य धर्म मान लिया है उस व्यक्तिरूप वैसादृश्यमें भी पुनः विसदृशताका ज्ञान कराने के लिये व्यक्तिरूप वैसादृश्योंकी उत्तरोत्तर कल्पना वढती रहनेसे कहीं भी अवस्थान नहीं हो सकेगा । यदि अनवस्था दोषको हटानेके लिये आप बौद्ध उन बहुतसी उत्तरोत्तर भावी न्यारी न्यारी वैसादृश्य व्यक्तियोंमें अन्य वैसादृश्यों के बिना ही विलक्षणपने या विसदृशपनेका ज्ञान उपजालोगे तो फिर मूलसे ही सभी व्यक्तियों में वैसादृश्य की कल्पना करना व्यर्थ है । क्योंकि जब वैसादृश्यों में उन दूसरे वैसादृयों के बिना भी विसदृश ज्ञान सिद्ध हो रहा है तो मूलमें वैसादृश्यका बोझ क्यों बढा दिया जाता । इस प्रकार सदृश परिणाम के समान विसदृश परिणाम में भी कैसे विसदृशपनकी कल्पना बन सकेंगी ? विचारो तो सही | बात यह है कि सादृश्य और वैसादृश्य के साथ वस्तुका कथंचित् भेर, अभेद, होनेसे पुनः सादृश्य और वैसादृश्योंकी धारा नहीं बढ़ानी पडती है। हां, विशेषैकान्तवादी बौद्धके. यहां या भेदवादी वैशेषिक के मतमें अनवस्था होगी । जैनसिद्धान्त अनुसार सदृश परिणाम और 'वत्सदृश परिणामस्वरूप सामान्य, विशेष आत्मक वस्तुका आबालवृद्ध त्रिदित प्रत्यक्ष हो रहा है । यदि
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