Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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व्यवस्थित हो गयी है ? बताओ । या तो हजारों, लाखों, सभी द्वीपोंका थोडा थोडा निरूपण करना चाहिये था । अथवा सातवें, आठवें सूत्रों करके सामान्य कथन कर तृतीय अध्यायको पूरा कर देना था। नौवें सूत्रसे प्रारम्भ कर चालीसवें सूत्रतक ढाई द्वीपकी ही स्तुति गाना तो उचित नहीं दीखता हैं । ढाई द्वीपसे बाहर भी असंख्य द्वीप समुद्रोंमें बडी बडी सुन्दर मनोहारी रचनायें हैं । ढाई द्वीपसे बाहर मनुष्य और तेरह द्वीप के बाहर सर्व साधारण अकृत्रिम जिनचैत्यालयों के नहीं होनेसे उन असंख्य द्वीपोंकी अवज्ञा नहीं की जा सकती है । व्यन्तरोंके अकृत्रिम नगरों में तो वहां भी चैत्यालय हैं । इस आक्षेपका उत्तर देनेके लिये श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिमवार्त्तिकको कहते हैं ।
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साद्वीपद्वये क्षेत्रविभागादिनिरूपणं ।
• अध्यायेस्मिन्नसंख्येयेष्वपि द्वीपेषु यत्कृतं ॥ २ ॥ मनुष्यलोकसंख्या या जिज्ञासविषया मुनेः । तेन निर्णीयते सद्भिरन्यत्र तदभावतः ॥ ३ ॥
असंख्याते द्वीपों के होनेपर भी इस तृतीय अध्यायमें श्री उमास्वामी महाराजने जो ढाई द्वीपों में ही क्षेत्र विभाग, पर्वत, नदी, आदिका निरूपण किया है, उससे अर्थापत्ति द्वारा सज्जन विद्वानों करके निर्णय कर लिया जाता है कि जो मनुष्यलोक की संख्या है, वही सूत्रकार मुनिकी जिज्ञासाका विषय है । क्योंकि ढाई द्वीपसे अतिरिक्त अन्य द्वीपोंमें उस मनुष्यलोककी संख्याका अभाव है । अर्थात् — असंख्य द्वीपोंमेंसे ठीक भीतरले ढाई द्वीपोमें ही उत्कृष्टरूप से द्विरूप वर्गधाराकी पंचम कृति के घनस्वरूप ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ यों उन्तीस अंक प्रमाण पर्याप्तमनुष्य पाये जाते हैं । अन्य द्वीपोंमें मनुष्य नहीं हैं । शिष्य के मनुष्यलोककी जिज्ञासा 1 अनुसार सूत्रकारको लोकका व्याख्यान करना पडा है । अन्य कोई पक्षपात या अवज्ञा करनेका अभिप्राय नहीं है |
ननु च जीवतच्चप्ररूपणे प्रकृते किं निरर्थकं द्वीपसमुद्रविशेषनिरूपणमित्यारांकां निवारयति ।
पुनः किसीकी सकटाक्ष आशंका है कि पहिले ही अध्यायसे प्रारम्भ कर पूरे दूसरे में और तीसरे अध्यायके कुछ भागमें जीवतत्त्वका प्ररूपण करना जब प्रकरणप्राप्त हो रहा है, तो फिर बीचमें ही व्यर्थ विशेषद्वीपों और विशेषसमुद्रोंका निरूपण सूत्रकारने क्यों कर दिया है ? निरर्थक बातों को सुनने के लिये किसी प्रेक्षावान् के पास अवसर नहीं है । निरर्थक बातों से बुद्धिमें परिश्रम उपजता है । पापप्रसंग भी हो जाता है । संवर और निर्जराके प्रस्ताव टल जाते हैं । इस प्रकार की गयी आशंका निवारणको प्रत्यकार अप्रिमवार्तिक कारके करते हैं ।
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