Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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विद्यमान हैं । और सच पूछो तो अक्षयसुखका भण्डार आत्मा ही है। शरीरकी माता या पितामही होरहीं आहारवर्गणाओंमें वह आत्माको सुख देनेवाली शक्ति न है और न थी । प्रत्युत आत्माने ही शरीरको सुखोत्पादक शक्तिकी थोडी भीख दे दी है । बस, उसी उपचरित असद्भूतनय अनुसार आत्मा के सुखसे होरहे शारीरिक सुखको अपना रहा यह जीव सोंठकी गांठ मिलनेपर बन गये पंसारी चूहे के समान बहिरात्मा बन रहा है । तभी तो मुमुक्षु, व्रती, इन्द्रियजन्य सुखोंपर लात मारकर अतीन्द्रिय स्वात्मोपलब्धिजन्य सुखका रसास्वादन करनेके लिये उद्यत रहते हैं । प्रकरणमें यह कहना है कि देवोंका रसना इन्द्रियजन्य सुख बहिर्भूत पदार्थोंसे नहीं प्राप्त होकर अपनी शारीरिक प्रकृति अनुसार अपने अभ्यंतर कारणों अनुसार उपज जाता है । तथा हृदयहारी पुष्प, शरीर, आदिकी दिव्य गन्धको सूंघ कर देवोंके घ्राण इन्द्रियजन्य सुख होरहा है । स्वकीय स्थानोंमें होरहीं सुन्दर रचनायें, देव देवांगनाओं के अनुपम सौन्दर्य, मध्यलोक सम्बन्धी अनेक द्वीप समुद्रोंकी स्वर्गीय छटायें, आदिको निरख कर देवों के चक्षुः इन्द्रिय द्वारा उपभोग प्रवर्त रहे हैं । स्वयं गाना बजाना अथवा अन्यों के गीत, वादित्र, आदिका श्रवण कर श्रोत्र इन्द्रियजन्य सुख उनके उपजते रहते हैं । परिशेषमें जाकर सब जीवोंको “ जगत् कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थ " के अनुसार वैराग्य भावनापर ही झुक जाना आवश्यक पडेगा, तभी तो स्वर्गौमें ऊपर ऊपर या अहमिन्द्रोंमें गति, शरीर, परिग्रह, अभिमानकी, हीनता है । अहमिन्द्र देवोंकी तो ऐसी विलक्षण परिणति है कि जाने आने या विक्रिया करनेकी परिपूर्ण सामर्थ्य होते हुये भी वे तीर्थकरों के पंचकल्याणक उत्सवों में भी मध्यलोकमें नहीं उतरते हैं। वहीं स्वस्थानसे सात पेंड चलकर भगवान् को नमस्कार कर लेते हैं । यहां वहां बहुत भ्रमण करना कुछ अच्छा थोडा ही है । मन्दा - या शुक्ललेश्या की जातियां नाना प्रकार की हैं । सर्वार्थसिद्धि के एक भवतारी देवोंमें तो परम शुक्ललेश्या सांसारिक सुखों की चरमसीमापर पहुंचाती हुई उत्तरभवसम्बन्धी परम वैराग्य भावनाओं की प्रयोजक हो रही है । उत्तरभवमें सम्पूर्ण पुण्यपापों का क्षय करानेवाली और इस भवमें उत्कृष्ट पुण्यकी सामग्री बन रही यह सर्वार्थसिद्धि के देवों की भेद विज्ञानसे पगी हुई सुखानुभूति तो चमत्कारपूर्ण है । " किमाश्चर्यमतः परम् " भोगोंका चरमफल उपेक्षा है । अस्तु, इस वार्तिकमें चार निकायों के इन्द्रियजन्य सुखका सूचन कर दिया है ।
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चतुर्णिकाया देवाः कायमत्रीचाराः इति संबंधाच्चतुर्ष्वपि निकायेषु सुराणां सुरतसुखविशेषस्य कथनं गम्यते आ ऐशानादिति वचनात् । तर्हि वैमानिकनिकाये सर्वसुराणां कायप्रवीचारप्रसक्तौ तन्निवृत्यर्थं ऐशानादिति वचनमभ्युपगंतुं युक्तं ।
देवोंकी चार निकायें हैं यों अनुवृत्त किये गये पहिले सूत्र के साथ काय प्रवीचारवाले देवोंका वाचक " कायप्रवीचारा: " इस शङ्खका सम्बन्ध कर देनेसे चारों भी निकायोंमें देवोंके सुरत सम्बन्धी