Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिके
रहनेका प्रसंग आवेगा । किन्तु ऐसा देखा नहीं जाता है । एक साथ बने हुये सौ घडोंकी किसीकी तो अवामें ही स्थिति पूरी हो जाती है । कोई चार दिन में फूट जाता है, कोई दस वर्ष तक टिकाऊ है, यों अनेक प्रकार स्थितियां हो रही है।
मुद्गगदिविनाशकारणसंपातवैचिच्यादृष्टादेव घटास्थितिवैचित्र्यमिति चेत्, तदेव कुतः ? समानकारणादित्वेपि तेषामिति चित्य । स्वकारणविशेषादृष्टादेवेति चेन्न, मुद्गरादिविनाशकारणसंपातहेतोः पुरुषप्रयत्नादेः परिदृष्टरय व्यभिचारात् । समानेपि तस्मिन् क्वचित्तसंपातादर्शनात् । समानेपि च तत्संपाते तद्विनाशाप्रतीते: कारणांतरस्य सिद्धेः।
यहां कोई आक्षेप करता है कि विनाशके कारण होरहे मोगरा, ममल, मुद्गर, आदिकोंके ठीक ठीक पतन की देखी जा रही विचित्रतासे ही घटकी स्थितिओं में विचित्रता आ जाती है । अधिक बलसे मोगरा गिर जानेपर एक पल ही ठहर कर घट फूट जाता है, निबंल आघा. तोंसे चार छह दिन में फटता है। शनैः शनः भमिमें सरकाने अथवा छोटी छोटी फटकारोंको वर्षोंतक घट झल जाता है। अग्निद्वारा पाककी न्यन अधिकतासे भी स्थितिका तारतम्य है। अत: परिदृष्ट कारणोंसे ही विचित्र स्थिति ओंको मानलो अदृष्ट कारणोंका बोझ व्यथं क्यों लादा जा रहा है। यों कहदेपर तो ग्रंथकार पूंछते हैं कि भाइयो, उन घटादिकोंके कारण आदिकों के समान होनेपर भी वह मोंगरा आदि विनाशक पदार्थों का सम्पात ही विचित्र प्रकारका किस कारण से हुमा ? बताओ। अथवा कारण आदि समान होते हुये भी वे मोंगरा या उनके सम्पात आदि विचित्र कैसे हुये ? इसका उत्तर बहुत कालतक चिन्तवन करो। सम.चीन ज्ञान प्राप्त होने पर तुम्हारा लक्ष्य उस अदृष्ट कारणपर संलग्न हो जायगा । यदि झटपट तुम यों बोल ठो कि मोगरा आदिका अनेक प्रकार गिरना भी उनके दृष्ट हो रहे कारण विशेषोंसे ही बन ठता है । अर्थात् कुलालका घट बनाते समय भी तरले लटू और ऊपरली मोंगरी में कभी अधिक बल से हाथ लग जाता है और कभी हलका हाथ पडता है अथवा खेलनेवाले बालकोंका किसी घडेपर हलका या भारी प्रहार हो जाता है। इसी प्रकार अग्निताप या वायके झकोरे भी न्यन, अधिक, मात्रामें लग जाते हैं। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि विनाशके कारण मुद्गर आदिकोंके संघातके हेतु हो रहे परिदृष्ट किये गये पुरुषप्रयत्न आदिका व्यभिचार हो रहा है। देखिये, पुरुषोंका समान प्रयान होनेपर भी कहीं उन मुद्गरादिकोंका पतन होना नही देखा जाता है। तथा उन मुद्गरादिका समान रूपसे सम्पात होनेपर भी उन घटादिकोंका विनाश नहीं प्रतीत हो रहा है। क्वचित् एक डेलके मारे मनुष्य मर जाता है । कभी बन्दूककी गोली से भी नही मरता है । यों दृष्ट कारणोंका अन्वय व्यभिचार और व्यतिरेक व्यभिचार दोष हो रहा है । ऐसी दशामें अन्य अदृष्ट कारणोंकी सिद्धि हो जानेसे ही प्रवीण पुरुषोंको धैर्य प्राप्त हो सकता है अन्यथा नहीं।
सूक्ष्मो भूतविशेषः सर्वथा व्यभिचारजितो विविध: कारणांतरमिति चेत्, तदेव कर्मास्माकं सिद्धं तस्य सूक्ष्मभूतविशेष संज्ञामात्रं तु मिद्यते परिदृष्टस्य सूक्ष्म भूनविशेषस्य व्यभिचारजितत्वासंमवात्।