Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
करते हैं । किन्तु समुद्रका धारण पृथिवी आदि अनेक मण्डलोंका भ्रमण केवल आकर्षण शक्ति से नहीं हो सकते हैं । इस बातपर बल देते हैं । वस्तुतः ज्योतिश्चक्र के भ्रमणसे ही छाया हानि छायावृद्धि, सूर्यका भूमिसंलग्न होकर दीख जाना, ये सब बन जाते हैं । भूमिमें भी अनेक प्रकार के नैमित्तिक परिणामों को उपजानेकी शक्ति विद्यमान है। इसके आगे ग्रन्थकारने समरात्र होना आदिको पुष्ट करते हुये सूर्य के एकसौ चौरासी मण्डल बतायें हैं। मुहूर्तकी गतिका क्षेत्र तथा उत्तर, दक्षिण, की ओर हो रहे उदय के प्रतिमासोंको घटित किया है । अभ्यन्तर मण्डल और बाह्य मण्डलों पर दिन रात के कमती, बढती हो जानेको साधा है। यहां प्रतिवादियों के तुका अच्छा खण्डन किया है। छायाका घटना बढना कोई भूनीके गोल आकारको नहीं साध देता है । क्षेत्रकी वृद्धिको युक्तियोंसे साधा गया है। सूर्यग्रहणका अच्छा विचार है । छोटी सी पृथिवीकी छाया सूर्य या चन्द्रमापर कुछ प्रभाव नहीं डाल सकती है। छोटेसे खंडको भूमिसे सूरजकी ओर जितना भी बढा दिया जावेगा, त्यों त्यों उसकी छाया नष्ट होती जाती है । ऐसी दशा में सूर्य के निमित्तसे भूमिको छाया पडना असमंजस है । ग्रहण के अवसरपर उपराग पडना ठीक है । किन्तु वह अधःस्थित राहुके विमानसे कार्य सम्पन्न हो जाता है । पृथिवीकी छायासे चन्द्रग्रहण और चन्द्रकी छायासे सूर्यग्रहण पडना मानना परीक्षाकी कसोटी पर नहीं कसा जा सकता है। सूर्य आदिके विमान मणिमय अकृत्रिम बने हुये हैं। राहु या केतु का पौराणिक कथानक झूठा है । ढाई द्वीपके ज्योतिष्क विमान अभियोग्य देवोंद्वारा ढोये जाते हैं । पूर्वरक्षी विद्वानोंके भूमीको गोल साधने में दिये गये हेतु दूषित हैं । सर्वत्र समतल और क्वचित् नीची, ऊंत्री, भूमिमें ज्योतिषचक्र की गतियों के वश हो रहे समरात्र आदिक सद बन जाते हैं । प्रत्यक्ष प्रमाण और आप्तोपज्ञ आगमसे विरुद्ध मनगढन्त सिद्धान्तका प्रतिपादन करना केवल कुछ दिनोंतक कतिपय श्रद्धालुओद्वारा मान्य भले ही हो जाय किन्तु सदा सर्वत्र सबके लिये अबाधित नहीं है। किसीने कुछ कह दिया और कदाचित् किसी पण्डितने अन्यथा प्रतिपादन कर दिया, ऐसे क्षणिक मत जुगुनू के समान भला स्याद्वाद सिद्धांत सूर्य के सन्मुख कितने दिन ठहर सकेंगे ? स्वयं उन्हीं लोगों में परस्पर अनेक पूर्वापर विरोध उठा दिये जाते हैं । अनेकान्तकी सर्वत्र विजय है । तदनन्तर गतिमान् ज्योतिष्कोंद्वारा किये गये व्यवहार काल
साधा है । व्यवहारकालद्वारा मुख्यकालका निर्णय करा दिया है । ढाई द्वीप के बाहर असंख्याते सूर्य, चन्द्रमा, या अन्य विमान जहां के तहां अवस्थित बता दिये हैं। चौथी निकाय वैमानिकों का वर्णन करते हुए कर्मोदयके वश कल्पोपपन्न और कल्पातीत देवोंका विन्यास बताया है | नव शब्दकी वृत्ति नही करनेसे अनुदिशोंको सूचित किया है। उत्तरोत्तर स्थिति आदिकों से अधिकता और गति आदिकसे हीनताको युक्तियों द्वारा साध दिया है। वैमानिकों में लेश्याका निरूपण करते हुये निर्देश आदि सोलह अधिकारोंकरके कृष्णादि लेश्याओंका आम्नाय अनुसार निरूपण किया है। एक भवतारी लोकान्तिक देव और द्विचरिम वैमानिकों का स्वतंत्रतया निरूपण कर चौथे अध्याय के पहिले आन्हिकको समाप्त किया है । इसके आगे तिर्यचोंकी व्यवस्था कर देव और नारकियोंकी जघन्य, उत्कृष्ट, स्थितियोंका निरूपण करते हुये कर्मोंकी विचित्रता