Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 685
________________ तत्त्वार्थं चिन्तामणिः 1 साध्य करने पर दिया गया। सत्त्वात् यह हेतु असिद्ध नहीं है । अथवा अनैकान्तिक या विरुद्ध हेत्वाभास भी नहीं है । जन्म, अस्तित्व आदि अनेक विकार स्वरूपपना नहीं माननेपर और अन्वित होरहे एकत्व भावका अभाव माननेपर सभी प्रकारोंसे सत्पना नहीं बन सकता है । सर्वथा नित्य पदार्थ में जन्मादिक नहीं होनेसे सत्त्व नहीं है । सर्वथा क्षणिकमें अम्वित एकत्वके नहीं होनेपर सत्त्व नहीं बन पाता है। अतः " नानैकात्मतया सन्तो नान्यथार्थक्रियाक्षः और " विकारी पुरुषः सत्त्वाद्बहुधानकवत्तव " इन वार्तिकों में कहा गया सत्त्व हेतु निर्दोष है । एतेनानेकवाग्विज्ञानविषयत्वमात्मनो निवेदितं । " ६७३ जीवके होरहे छह विकारोंको साधनेवाले इस कथन करके आत्मा के अनेक वचन और विज्ञानोंका विषयपना भी निवेदन किया जा चुका समझ लेना चाहिये । अर्थात् वाच्य अर्थकी अनेक परिणतियों अनुसार एक अर्थके अनेक वाचक शब्द प्रयुक्त कर दिये जाते हैं जैसे कि एक घडे में 'मिट्टीका है" नवीन है, बडा है, सुन्दर है, पुष्ट है, लाल है । इत्यादिक शब्दप्रयोग अनेक परिणतियों के अनुसार हो जाते हैं । इनसे भी अधिक परिणतियों के अनुसार उस घट विषय में अनेक ज्ञान उपज जाते हैं । अतः अनेक शब्द और नाना विज्ञानोंका गोचर हो जानेसे घटके समान जीवात्मा एकानेक आत्मक है। यह हेतु भी व्यभिचारादि दोषोंसे रहित है । 13 तयाने शक्ति प्रचितत्वं वस्त्वंतरसंबंधाविर्भूताने कसंबंधिरूपत्वं अन्यापेक्षा नेकरूपोत्कर्षापकर्षपरिणगुण संबंधित्वं अतीतानागतवर्तमान काल संबंधित्वं उत्पादव्यय श्रीव्ययुक्तत्वं' अन्वयव्यतिरेकात्मकत्वं च समर्थितं । तस्य जन्मादिविकारषट्कप्रपंचात्मकत्वात्सत्त्वव्यापकत्वो' पपत्तेः । सत्त्वान्यथानुपपत्त्या प्रसिद्धं च तत्सर्वमेकात्मकत्वमनेकात्मकत्वं च जीवस्व साधयति तदन्यतरापाये अनेक वाग्विज्ञानविषयत्वाद्यनुपपत्तेः । तदनुपपत्तौ सत्वानुपपत्तेश्च जीवतत्त्वाव्यवस्थितिप्रसंगात् । " तथा सत्त्वहेतुकी पुष्टि करनेवाले उक्त कथनसे अनेक शक्ति प्रचितत्त्व, वस्त्वंतर. सम्बन्धाविर्भूताने सम्बन्धिरूपत्व, अन्यापेक्षा नेक रूपोत्कर्षापकर्षपरिणतगुणसम्बन्धित्व, अतीतानागतवर्तमानकालसम्बन्धित्व, उत्पादव्ययधोव्ययुक्तत्व, अन्वयव्यतिरेकात्मकत्व इन हेतुओंका भी समर्थन कर दिया गया है । भावार्थ:-घृतमें अनेक शक्तियां हैं। घीका खा लेना शरीरको चिकना करता है, तृप्ति करता है, शरीरको बढाता है, चरक संहितामें लिखा है । स्मृतिबुद्धयग्निशुः कफमेदो त्रिवर्द्धनं । वातपित्तविषोन्माद शोषालक्ष्मी ज्वरापहम् ॥ १ ॥ सर्व स्नेहोत्तमं शीतं मधुरं रसपाकयोः । सहस्रत्रीर्यं विधिभिर्वृतं कर्म सहस्रकृत् । २ ।। अथवा अग्नि जैसे दाह, पाक, शोष, स्फोट, आदि अनेक कार्यों को करने की स्वात्मभूत शक्तियोंसे खचित हो रहीं है । उसी प्रकार आत्मा चैतन्य, वीर्य, आनन्द, सम्यग्दर्शन आदि गुण स्वरूप शक्तियों करके अथवा सामायिक, ध्यान, अध्यापन, दान, उपभोग, सत्य, ब्रह्मचर्य, योग, पर्याप्ति आदि पर्याय स्वरूप शक्तियोंकर के पिण्डभूत हो रहा है। अतः एक अनेकात्मक है ।

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