Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 683
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ६७१ विकारों को नहीं मानने पर उसके व्याप्यव्यापक होरहे सत्त्वका अभाव होजाता है जहां घडे में जीवत्व ही नहीं है वहां मनुष्यत्व, ब्राह्मणत्व, नहीं होते हुये गौडत्व भी नहीं ठहर पाता है । अतः प्रकृति के समान आत्मा के भी छह विकार होरहे मानने पडेंगे । जायते ते विनश्यंति संति च क्षणमात्रकं । पुमांसो न विवर्तते वृद्धयपक्षयगाश्च न ॥ १२ ॥ इति केचित्तध्वस्तास्तेप्येतेनैवाविगानतः। विवर्ताद्यात्मतापाये सत्त्वस्यानुपपत्तितः ॥ १३ ॥ आत्मा को सर्वथा नित्य माननेवाले कापिलों का विचार कर अब आत्माको सर्वथा अनित्य माननेवाले बौद्धों के साथ परामर्श किया जाता है । बौद्ध कहते हैं कि वे पुरुष (जीव) उत्पन्न होते हैं और नष्ट भी होजाते हैं तथा एक क्षणमात्र निवास करते हुये अस्तिस्वरूप भी हैं। किन्तु जीव विपरिणाम नहीं करते हैं तथा वृद्धि और अक्षय को प्राप्त करनेवाले भी नहीं हैं। अर्थात्-छह विकारों में पहिला जन्म, दूसरा अस्तित्व, और छठा विकारों का नाश इन तीन विकारोंको हम जीव में स्वीकार करते हैं । तीसरे विपरिणाम, चौथी वृद्धि, पांचवां अपक्षय, इन तीन को मानने की आवश्यकता नहीं है आप जैनोंने भी तो सत् पदार्थ में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, इन तीन ही धर्मों को स्वीकार किया है । ऐसा यहांपर कोई क्षणिकवादी कह रहे हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि वे भी इस निर्दोष उक्त कथन करके ही भले प्रकार प्रध्वंस को प्राप्त कर दिये गये हैं। क्योंकि विपरिणति स्वरूप विवर्त्त आदि तीन स्वरूप विकारोंका अभाव माननेपर जीवों के अक्षुण्ण सत्त्व की ही अनुपपत्ति है । अर्थात्-छहों विकारोंके होने से जीवों का सद्भाव बन सकता है । अन्यथा वन्ध्यास्तनन्धय के समान जीव असत् होजायेंगे। यथैव हि जन्मविनाशास्तित्वापाये क्षणमिति न परमार्थसत्त्वं तथा विवर्तनपरिवधनपरिक्षयणात्मकत्वापार्यपि तथा प्रतीयते, अन्यथा कूटस्थात्मनीव खे पुष्पवद्वा चेतनस्य सत्त्वानुपपत्तेः । सौगत कहते हैं, चूकि जिस ही प्रकार जन्म, विनाश, और अस्तित्व का निराकरण माननेपर क्षणिकपन इसप्रकार परमार्थ रूपसे सत्पना नहीं बनपाता है, उस प्रकार विपरिणाम परिवृद्धि, अपक्ष य, आत्मकपना नहीं मानने पर भी तिस प्रकार क्षणिकपना वस्तुभूत प्रतीत होजाता है । अन्यथा कूटस्थ आत्मा में जैसे सत्त्व नहीं है अथवा जैसे आकाश में पुष्पका सत्त्व नहीं है, उसी प्रकार चेतन के सद्भाव की असिद्धि बन बैठेगी अथवा इस पंक्ति का अर्थ यों कर लिया जाय । आचार्य कहते हैं कि जिस ही प्रकार जन्म विनाश और अस्तित्व को नहीं माननेपर बौद्धों के यहां क्षणिक पदार्थ में वस्तुभूत सत्पना नहीं आसकता है, उसी प्रकार परिणति वृद्धि, और अपक्षय स्वरूप पदार्थ को नहीं मानने पर भी तिस प्रकार वास्तविक सत्पना नहीं प्रतीत होरहा है । अन्यथा यानी तीन को माना जाय और विवर्तन, परिवर्द्धन, परिक्षय इन तीन को

Loading...

Page Navigation
1 ... 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702