Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 679
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः धर्म है, तत्र तो यह हेतु समीचीन नहीं है। प्रत्येक क्षण में होनेवाला एक परिणाम करके व्यभि चार हो जाता है, अर्थात् एक क्षणकी एक ही पर्याय खरविषाण आदि अवस्तुओंसे विलक्षण हैं । किन्तु वह अकेली एकक्षणवर्त्ती पर्याय तो छह प्रकार विकारोंको प्राप्त नहीं होती है । वस्तुके छह विकार हो सकते हैं। एक विकारस्वरूप पर्याय के पुनः छह विकार नहीं हो सकते हैं । अनवस्था हो जायगी । हां यदि वे अकलंक महाराज अमावसे विलक्षणपनको वस्तुस्व स्वीकार कग्लें तब तो उस अकलकहेतुमं जीव भावको छह विकारोंकी प्राप्तिका साध देना समुचित है । क्योंकि वस्तु-वका उस छह प्रकार विकारोंकी प्राप्तिके साथ अविनाभाव सिद्ध हो रहा है । अब यदि अकलंक महाराज असत्त्व धर्मसे विलक्षणपन ( अभावविलक्षणत्व ) को सत्त्वधमं बखानं तब भी वह अभावविलक्षणत्व हेतु समीचीन नहीं है। क्योंकि सूक्ष्म ऋजुसूत्रनयका विषय हो रहे प्रतिक्षणवर्ती एक पर्याय करके और व्यवहारनयके विषय हो रहे अन्वित द्रव्य करके व्यभिचार दोष होता है। देखिये उस एक पर्याय या केवल अन्वित द्रव्यके छह प्रकार विकार नहीं हुए हैं । फिर भी सत्त्वधर्मका आश्रय होनेसे उनमें अभाव विलक्षणपना सिद्ध है । अन्य प्रकारोंकी शरण लेनेपर सिद्धांतसे विरोध हो जायगा । भावार्थ - अकलंक महाराज और विद्यानन्द स्वामी जीव आदि सद्भूत भावों में छहों विकारोंको स्वीकार करते हैं । अकलंक महाराजने भावोंको छह विकारस्वरूप अनेक आत्मकपना साधते हुए क्षणत्वात् " इस वार्तिकको कहा है और वार्तिकका यह विवरण किया है । 'अभूतं नास्तीत्येकरूपो भावः न हि अभावः अभावात्मना भिद्यते तद्विसदृशस्तु नानारूपो भावः इतरथा हि तयोरविशेष एव स्यात्" । फिर भी अभाव विलक्षणत्वका स्पष्ट अर्थ नहीं होने के कारण ग्रंथकारको " अभाव बिल " ६६७ यह ऊहापोह करना पडा है । अभाव पदसे अत्रस्तु या असत्त्वका ग्रहण करना अनिष्ट है । जब कि तुच्छ अभावोंकी कोई परिभाषा ही नहीं है तो फिर किस मर्यादाभूत पंचम्यन्तसे वस्तुका विलक्षणपना किया जाय ? अवस्तु, अद्रव्य, अभाव, असत्त्व, इन पदों का सिद्धांनमर्यादासे कोई अर्थ नहीं निकलता है । अतः इनका विलक्षणपना या इनका रहितपना किसीका ज्ञापक हेतु नहीं बन सकता है । " वस्त्वेवावस्तुनां याति प्रक्रियाया विपर्ययात् । संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यादृते क्वचित् । असद्भेदो न भावस्तु स्थानं विधिनिषेधयोः असर्वान्तमवस्तु स्यादविशेष्यविशेषणं " आदिक देवागम में गुरुवर्य श्री समन्तभद्राचार्य के निर्णीत सिद्धांत अनुसार अखंड पूरे " अभावविलक्षणत्वात् " का अर्थ वस्तुस्व किया जायगा, तभी अभाव विलक्षण व हेतु सद्धेतु बन सकेगा | अन्यथा अभावविलक्षणत्वका खण्ड कर देनेपर वस्तुके एकदेश हो रही अकेली पर्याय और शुद्धद्रव्यकर के व्यभिचार दोष तदवस्थ रहेगा । अष्टसहस्री में इस विषय के निर्णीत हो रहे जंनसिद्धांत को स्पष्ट कर लिया गया है। अद्वैत, अनेकान्त, अमाया, अखरविवाण, अभाव, इन सबका विवेचन हो जाता है । बौद्धों के यहां मानी गई गोशब्दका अर्थ अगौ व्यावृत्ति जैसे गौसे भिन्न कोई वस्तुभूत पदार्थ नहीं है, उसी प्रकार अनावविलक्षणत्व भी कोई वस्तुसे न्यारा परमार्थभूत नहीं है । ऐसी दशामें यह निर्बल हेतु भला क्या छह विकारों को साध सकेगा ? इसकी अपेक्षा अकलंक महाराज सरलतया यदि वस्तुस्वहेतु कह देते तो

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