Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 680
________________ ६६८ तस्वार्थश्लोकवार्तिके नानारूप भावकी सिद्धि सुगम हो जाती । अभावविलक्षणस्वका अर्य करने में शिष्यों को सम्हाल. नेके लिये ग्रंथकारको प्रयत्न नहीं करना पडता । बात यह है कि अकलंक महाराज अकलंक ही हैं और विद्यानन्द आवार्य भी स्वनामधन्य विद्यानन्द ही हैं । महान् गजराजों के विषयमे छोटे निर्बल जीवोंको समालोचना करनेका कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। उसी प्रकार हम सारिखे अल्पमति पुरुषोंको उद्भट आचार्योंके विषय में पर्यालोचना करने का कोई अधिकार नहीं है । न जाने किन किन अतयं अपेक्षाओं अनुसार दोनों आचार्यवोंने अनेकान्तकी सिद्धि की है। प्रतिक्षणसे लेकर " न सम्यगिर्द साधनं " यहांतक पाठ लिखित पुस्तकमें नहीं है, तब तो अकेले अवस्तुविलक्षणस्वस्वरूप अमावविलक्षणत्वका केवल पर्याय और केवल द्रव्यकरके व्यभिचार दोष दे दिया जाय । ग्रंयकार विद्यानंदस्वामी सद् मूत जीव अथवा वस्तुभूत जीवके छह विकारोंका धारना साधते हैं । अभावविलक्षग हो रहे जोवके छह विकारोंकी प्राप्ति होनेको अन्तरंगसे नहीं चाहते हैं। यों भकलंक महाराजके कहतेसे सिद्धांताविरुद्ध उसका व्याख्यान करते हुये ग्रन्थ कारने ज्ञानवयोवृद्ध पुरखाओं की बातको टाला भी नहीं है । वस्तु-वस्वरूप अभावविलक्षणपना जीवोंके षड्विध विकार प्राप्तिको साध ही देता स्वीकार कर लिया है। ननु च वस्तुत्वमप्यमावविलक्षणत्वं न जीवानां षड्विधविकारप्राप्ति साधयति तस्यास्तित्वमात्रेण व्याप्तत्वादिति मन्यमानं प्रत्याह । ___ यहां कोई नित्यैकान्तवादी शंका करता है कि वस्तुस्वस्वरूप भी " अभावविलक्षणपना" हेतु जीवोंके जन्मादि छह प्रकार विकारोंकी प्राप्तिको नहीं साध पाता है। क्योंकि उस वस्तुत्वकी केवल अस्तित्व के साथ व्याप्ति बन रही है। जन्म, परिणति, वृद्धि, अपक्षय और विनाशके साथ वस्तुव हेतु व्याप्त नहीं है। इस प्रकार मान रहे वादीके प्रति ग्रंथकार कहते हैं। बिभ्रतेस्तित्वमेवैते शश्वदेकात्मस्वतः। नान्यं विकारमित्येके तन्न जन्मादिदृष्टितः ॥ ८॥ ये जीव आदि भाव ( पक्ष ) अस्तिपनको ही धारण करते हैं ( साध्य ) । क्योंकि सर्वदा स्थिर रहना ऐसे एक नित्यधर्म स्वरूप हो रहे हैं ( हेतु ) अन्य किसी विकारको नहीं धारते हैं। इस प्रकार कोई एक विद्वान् मान बैठे हैं। आचार्य कहते हैं कि उनका यह कहना यथार्थ नहीं है । क्योंकि सभी पदार्थोंमें हो रहे जन्म आदि छहों विकार देखे जाते हैं। - एतेष्वस्तित्वादिषु मध्ये अस्तित्वमेवात्मानो विभ्रति नान्यं पंचविघं जन्मादिविकारं तेषां नित्यकरूपत्वात् स्वरूपेण शश्वदस्तित्वोपपत्तेरित्येके । तन्न सम्यक् तेषां जन्मादिदर्शनात् । मनुष्यादीनां हि देहिनां बाल्यादिमावेन जन्मादयः प्रतीयंते मुक्तात्मनामपि मुक्तत्वादिना ते संभाव्यंत इति प्रतीतिविरुद्ध जीवानां जन्मादिविकारविकलत्ववचनम् ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702