Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ श्लोकवातिके
हें । यों अर्थ कर लेना चाहिये । इस प्रकार सूत्र वाक्यों के आठ प्रभेद कर देने से वार्तिक् प्रतिज्ञा अनुसार प्रतीति कर लेने योग्य अर्थ निकल आता है ।
चतुश्चतुः शेषेष्वितिवक्तव्यं स्पष्टार्थमिति चेत् न, अविशेषेण चतुर्षु माहेंद्रांतेषु पीतायाः प्रसंगात् चतुर्षु च सहस्रांतेषु कल्पेषु पद्मायाः प्रसक्तेः शेषेषु चानतादिषु शुक्ललेश्यायाः समनुषंगात् तथा चार्षविरोधः स्यात् । तत्र हि सौधर्मेशानयोः देवानां पीता लेश्येष्यते, सानत्कुमारमाहेंद्रयोः पीतपद्मा, ततः काविष्ठांतेषु पद्मा, ततः सहस्रारांतेषु पद्मशुक्ला, ततोऽच्युततांतेषु शुक्लाः ततः शेषेषु परमशुक्लेति ।
कोई पण्डित यहाँ अपनी भोली बुद्धि अनुसार कह रहे हैं कि सूत्रकार को " पीतपद्मशुक्ललेश्याश्चतुरचतुः शेषेषु " इस प्रकार स्पष्ट अर्थ का प्रतिपादक सूत्र कह देना चाहिये । चार स्वर्गों में पीत लेश्या और चार में पद्म लेश्या तथा शेष स्थानोंपर शुक्ललेश्या को धार वाले देव हैं । यो अर्थ की स्पष्ट प्रतीति करा दी जा सकती है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि यों सूत्र गढ़ने पर तो सामान्यरूपसे माहेंद्र पर्यन्त चार स्वर्गों में पीत लेश्या पाये जाने का प्रसंग आवेगा और सहस्रार पर्यन्त आठ स्वर्गों में किन्तु इन्द्र अपेक्षा ब्रम्ह ब्रम्होत्तर लान्तव कापिष्ट, शुक्र महाशुक्र, शतार सहस्रार इन चार कल्पों नें पद्म लेश्या
।
उन से ऊपर कापिष्ठ पर्यन्त स्वर्गों में पद्म लेश्या और
का प्रसंग आवेगा तथा इन से ऊपर के शेष आनत आदि सत्रह पटलों में शुक्ल लेश्या का भले प्रकार प्रसंग बन बैठेगा और तिस प्रकार इन तीन अनिष्ट प्रसंगों के लग जानेमे आम्नाय अनुसार चले आ रहे ऋषि प्रोक्त सिद्धान्त से विरोध ठन जायगा । क्योंकि उस आर्ष सिद्धान्त में सौधर्म और ऐशान में रहनेवाले देवों के पीतलेश्या इष्ट की गयी है । तथा सानत्कुमार और महेंद्र स्वर्गों में पीत लेश्या और पद्मलेश्या मानी गयी हैं चार स्वर्गों में पद्मा लेश्या है । इनके ऊपर सहस्रार पर्यंन्त चार शुक्ल लेश्या अभीष्ट की गयीं हैं। उनसे ऊपर अच्युत पर्यन्त स्वर्गों में शुक्ल लेश्या बखानी हैं । तथा उन सोलह स्वर्गौसे भी ऊपर शेष ग्रैवेयक, अनुदिश, और अनुत्तरयों ग्यारह पटलों में परमशुक्ललेश्या सिद्धान्त ग्रन्थों में वर्णित की गयी है । अतः " चतुश्चतुः शेषेषु " कह देने से अर्थ तो स्पष्ट हो गया, किन्तु अपसिद्धान्त दोष क्रूर चेष्टा पूर्वक भ्रकुटीको चढाये हुये सन्मुख हो जाता है | सिद्धान्त मार्ग से स्खलित होकर कोरे स्पष्ट कथन करनेको शेखी मारना समुचित नहीं है । " बच्चा भलेही मरजाय किन्तु दोरा ( गंडा ) नहीं टूट जाये " तांत्रिकोंको ऐसा निंद्य भाषण नहीं करना चाहिये ।
कथं सूत्रेणानभिहितोयं विशेषः प्रतीयते ? । पीताग्रहणेन पीतपद्मयोः संग्रहात् पद्माग्रहणेन पद्मशुक्लयोः इत्याहुः ।
यहां कोई कटाक्ष करता है कि श्री उमास्वामी महाराजने सूत्र करके यह विशेष जब कण्ठोक्त नहीं कहा है, तो किस प्रकार आप ग्रंथकारने यों प्रत्यय कर लिया है कि सनत्कुमार