Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 664
________________ ६५२ तत्त्वार्थश्लोकवातिके %3 आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु वेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥ ३२॥ आरण और अच्युत स्वर्गोसे ऊपर नवग्रैवेयकोंमें प्रत्येकमें एक एक सागरसे अधिक हो रही स्थिति समझ लेनी चाहिये । अर्थात्-तीन ‘अधोत्रेयकोंमें पहिले सुदर्शन घेवेयकमें तेईस सागरकी स्थिति है। दूसरे अमोघ ग्रैवेयक में चौवीससागरकी तीसरे सुप्रबुद्ध नामक ग्रेवेय. कमें अहमिन्द्र देवोंकी पच्चीस सागर उत्कृष्ट स्थिति है। तीन मध्यम ग्रंवेयकोंमें पहिले यशोधर नामक अवेयकमें छब्बीस सागर स्थिति है। दूसरे सुभद्र नामक ग्रंवेयकमें सत्ताईस सागर और तीसरे सुविशाल अवेयकमें अट्ठाईस सागर उत्कृष्ट स्थिति है । कारले तीन ग्रंवेयकोमेंसे सुमनस नाम ग्रेवेयकमे उन्तीस सागर और दूसरे सौमनस ग्रेवेयकमें तीस सागरकी तथा तीसरे प्रीतिकर ग्रंवेयकमें इकतीस सागरकी उत्कृष्ट स्थिति है । नौ अनुदिश विमानोंमें एकसे अधिक इकतीस यानी बत्तीस सागर उत्कृष्ट स्थिति है। विजयादिकमें एक करके अधिक बत्तीस अर्थात्-तेतीस सागर उत्कृष्ट स्थिति है । सर्वार्थसिद्धि में जघन्य, उत्कृष्ट, दोनों भी स्थितियां परिपूर्ण तेतीस सागरोपम हैं। ___ अधिकारावधिकसंबंधः । वेयकेभ्यो विजयादीनां पृथग्ग्रहणमनुदिशसंग्रहाथं । प्रत्येक मेककवृद्धयमिसंबंधार्थ नवग्रहणं । सर्वार्थसिद्धस्य पृथग्ग्रहणं विकल्पनिवृत्त्यर्थ । “सौधर्मशानयोः सागरोपमेऽधिके " इस सूत्रके अधिक शब्दका अधिकार तो पूर्व सूत्रके समासगभित चार पदोंतक ही लागू होता है। किन्तु " त्रिसप्त" आदि सूत्र में पडे हुए अधिक शब्दका अधिकार हो जानेसे यहां उसका सम्बन्ध कर लिया है । तिस करके उक्त अर्थ निकल आता है । वेयक और विजय आदि दो पदोंका समास नही कर अवेयकसे विजय आदिका पृथग् ग्रहण करना तो नौ अनुदिश विमानोंका संग्रह करने के लिये है। अनुदिशके नौऊ विमानोंमें केवल एक सागरकी ही वृद्धि होती है। हां, ग्रेवेयकों में प्रत्येक ग्रंवेयकके साथ एक एक सागरकी वृद्धि हो जानेका नौऊ ओर सम्बन्ध करने के लिये नव शब्दका ग्रहण है । अर्थात्नव शब्द नहीं कह कर केवल ग्रेवेयकेषु इतना ही कह देते तो विजय आदिके समान नौऊ अवेयकोंमे एक ही सागर अधिक बढता। नवसु कह देनेपर तो नौ स्थानोंपर प्रत्येक में एक एक सागरका अधिकपना प्रतीत हो जाता है । सर्वार्थसिद्धिका पृथक् ग्रहण करना तो जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिके विकल्पोंकी निवृत्ति के लिये है। का पुनरियं भवनवास्यादीनां स्थितिरुक्तेत्याह । . भवनवासी आदि देवोंकी फिर यह उत्कृष्ट या जघन्य स्थिति क्या कही जा चुकी है? बताओ तो सही। इस प्रकार आशंका होनेपर ग्रंथकार उत्तरवात्तिकको कहते हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702