Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 666
________________ ६५४ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके परिशेष न्यायसे सौधर्म और ऐशान कल्पोंमें ठहरनेवाले देवोंकी यह जघन्य स्थिति विशेषतया समझी जाती हैं । तिस कारणसे कि उतरवर्ती ग्रंथ में अन्य सानत्कुमार माहेंद्र आदिक अपराजित पर्यन्त देवोंकी जघन्यस्थिति कही जानेवाली है। अतः यह शेष रहे प्रथम कल्पयुगलके देवोंकी ही जघन्यस्थति परिशेष न्यायसे ज्ञात कर ली जाती है। अर्थात "प्रसक्त प्रतिषधे शिष्य माणसंप्रत्ययहेतुः परिशेष: " अन्यत्र प्रसंग प्राप्तोंमें विधेयान्तरका सद्भाव या प्रकृत अर्थकी बाधा होनेपर शेष बच रहे उद्देश्यों ही अनुमानस्वरूप परिशेष प्रमाणसे प्रकृत अर्थका विधान अनुमित कर लिया जाता है । पल्योपममतिरिक्तमवरास्थितिमब्रवीत् । सोधर्मेशानयोः सेह सूत्रेर्थात्संप्रतीयते ॥१॥ सूत्रकार उमास्वामी महाराज कुछ अधिक पल्योरम परिमाण जघन्य स्थितिको जो इस सूत्रद्वारा कह चुके हैं वह जघन्य स्थिति इस सूत्रमें सौधर्म और ऐशाननिवासी देवों की है, यह बात कहे विना ही अर्थापत्ति करके भले प्रकार प्रतीत हो जाती है। क्योंकि अगले सूत्र में सानत्कुमारमाहेन्द्र देवोंसे लेकर विजयादि पर्यन्त देवोंकी जघन्य स्थिति कण्ठोक्त करदो जाने वाली है। तत एवानंतरसूत्रेण सानत्माकुमारादिषु जघन्या स्थितिरुच्यते। तिस ही कारण यानी इस सूत्रद्वारा पहिले कल्पयुगलकी जघन्यस्थितिका निरूपण हो जानेसे ही अव्यवहित अगले सूत्र करके सानत्कुमार माहेन्द्र आदि स्वर्गाके देवो में पायी जारही जघन्य स्थिति अब कही जा रही है। उसको सुनो। परतः परतः पूर्वा पूर्वानंतरा ॥ ३४ ॥ "आद्यादिभ्य उपसंख्यानं " इस नियम करके परत: यहां सप्तमी अर्थ में तसि हुवा ह। पर परदेशमे अव्यवहित पूर्व पूर्वकी उत्कृष्ट स्थिति जघन्य हो जाती है अर्थात्-अव्यवहित पहिले कल युगलोंमे या प्रस्तारों में जो उत्कृष्ट स्थिति है वह परले परले कल्प युगलों या प्रस्तारोमें जघन्य हो जाती है । नीचेवालोंको जघन्यस्थिति एक समय अधिक होती हुई ऊपरले प्रस्तार या कल्पोमें जघन्य जान लेनी चाहिये। अपरेत्यनुवर्तते, तेन परतः परतो या च प्रथमा स्थितिः सा पूर्वापूर्वानंतरा परस्मिन्नवरा स्थितिरिति संप्रत्यपः। अधिकग्रहणानवतेः सातिरेकसंप्रत्ययः । आविजयादिभ्योधिकारः। अनंतरेति वचनं व्यवहितनिवृत्त्यर्थं । पूर्वेत्येतावत्त्युच्यमाने व्यवहितग्रहणप्रसंगस्तत्रापि पूर्वशद्वप्रवृतेः । पूर्वसूत्रसे यहां अपरा इस पदकी अनुवृत्ति हो जाती है । तिस कारण इस प्रकार समिचीन प्रतीति हो जाती है कि परली ओर परली ओरसे या परले परले प्रस्तारों या कल्पयुगलों में जो प्रथमा स्थिति

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