Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 671
________________ तार्थचिन्तामणिः श्री उपास्वामी महाराजने उक्त तीन सूत्रों में दूसरे व्यन्तर देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक एक पल्य समझने योग्य बना दी हैं और उन्हीं के समान ज्योतिष्क देवोंकीं उत्कृष्ट स्थिति साधिक पल्य कह दी है । तथा तीसरे " तदष्टनागोपरा " सूत्र करके उन ज्योतिषियोंकी जन्य स्थिति उस पत्यके आठवें भाग कह दी है। जैसे कि " दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् भवनेषु च व्यन्तराणां च " इन तीन सूत्रों को मिलाकर एक वार्तिक इलोक बना दिया गया है। उसी प्रकार "परायोरममधिकं ज्योतिष्काणां च तदष्ट मागोऽपरा इन तीन सूत्रोंको मिलाकर यह एक वार्तिक श्लोक बना दिया है । " ६५९ यथा व्यन्तराणां पत्योपममधिकं परा स्थितिः तद्वत् ज्योतिष्काणामपि तद्ज्ञेयं तदष्टभागः पुनरवरा स्थितज्र्ज्योतिष्काणां प्रतीता । जिस प्रकार व्यन्तरोंकी उत्कृष्ट स्थिति साधिक एक पल्य उन्तालीसवें सूत्रमें कह दी है, उसी प्रकार ज्योतिष्कोंकी भी वह साधिक पल्य उत्कृष्ट स्थिति चालीसवें सूत्रमें कह दी गयी समझ लेनी चाहिये । पुनः इकतालीसवें सूत्रमें उस पल्यके आठमे भाग ज्योतिष देवोंकी जघन्य स्थितिकी प्रतीति कराई है । अथ मध्यमा स्थितिः कुतोत्रगम्यत इत्याह । ra frest आक्षेप है कि मनुष्य, तियंच, देव, नारकियों की उत्कृष्ट स्थिति और जघन्य स्थितिका हमने परिज्ञान कर लिया है। किन्तु सूत्रकारने मध्यम स्थितियोंका निरूपण नहीं किया है । अत: बताओ कि मध्यम स्थितिको किस ढंगसे समझ लिया जाय ? ऐसा आक्षेप प्रवर्तनेपर आचार्य विद्यानंद स्वामी वार्तिक द्वारा यों समाधान कहते हैं । सामर्थ्यान्मध्यमा बोध्या सर्वेषां स्थितिरायुषः । प्राणिनां सा च संभाव्या कर्मवैचित्र्यसिद्धितः ॥ २ ॥ " तन्मध्यपतितस्तग्रहणेन गृह्यते " इस नियम अनुसार चारों गति सम्बन्धी संपूर्ण प्राणियों के आयुष्यको मध्यमस्थिति तो विना कहे ही अर्थापत्त्या सामर्थ्य से समझ ली जाती है। अर्थात् जिस पदार्थका आदि और अन्त होता है, उसका मध्य अवश्य होता है। अनन्त भूतकाल और उससे भी अनन्त गुणा अनन्त भविष्यकालका मध्यवर्ती वर्त्तमानकाल एक समय है । फिर भी आपेक्षिक वर्तमानपना बहुत समयोंको प्राप्त है । यथार्थ में एक आदिके पदार्थ और एक अन्तके पदार्थको छोड़कर सभी स्थानोंको मध्यमपना सुलभ है। अतः अधिक सम्मतियों (वोटों ) अनुसार ग्रहण किये गये मध्यम स्थानों का वाचक शब्दोंके विना ही आवश्यक रूपसे उपादान हो जाता है । और वह अनेक प्रकारकी स्थितियों का सद्भाव तो पौद्गलिक कर्मो के विचित्र पनकी सिद्धि हो जाने सम्भावना करने योग्य है । अर्थात् - अपने अपने परिणामों करके उपार्जित किये गये विचित्र कर्मों अनुसार जीवोंकी नाना प्रकार आयुःस्थितियां बन बैठती हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702