Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिके
अब महाराज यह बताओ कि व्यन्तरोंको उत्कृष्ट स्थिति क्या है ? इस प्रकार तत्त्व जिज्ञासा प्रवर्तनेपर श्री उमास्वामी महाराज उत्तरवर्ती सूत्रको उतारते हैं।
परा पल्योपममधिकम् ॥३९॥
किन्नर आदि व्यन्तरोंकी उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक एक पल्योपम काल है।
स्थितिरिति संबंधः ।
इस सूत्रमें कहे गये परा शब्द के साथ "स्थिति " इस शब्दका सम्बन्ध जोड लेना चाहिये। जिससे कि व्यन्तरोंकी उत्कृष्ट स्थिति एक पल्पसे कुछ अधिक है। यों अर्थ घटित हो जाता है।
इस अवसरपर आयुष्यके प्रकरण अनुसार ज्योतिष्क देवों की स्थिति कह दी जाय तो सुगम होगी। यों आकांक्षा प्रवर्तनेपर मूल सूत्रकार अग्रिम सूत्रका निरूपण करते है।
ज्योतिष्काणां च ॥४०॥ चन्द्रमा, सूर्य, आदि ज्योतिष्कोंकी उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक एक पल्य है। पल्योपममधिकं परा स्थितियटना ।
यहां भी च शब्द करके प्रकरण प्राप्त पल्योपम, अधिक. परा, स्थिति, इन शब्दोंका समुच्चय कर यों अर्थ घटित कर लेना चाहिये कि ज्योतिष देवोंकी उत्कृष्ट आयु कुछ अधिक एक पल्योपम है।
अब ज्योतिषियोंकी जघन्य स्थितिका परिज्ञान करानेके लिये सूत्रकार अग्रिम सूत्रको कहते है।
तदष्टभागोऽपरा ॥४॥ ज्योतिष देवोंकी जघन्य स्थिति उस पल्योपमके आठमें भाग है जो कि असंख्यात वर्षों की समझनी चाहिये।
स्थितियॊतिष्काणामिति संप्रत्ययस्तेषामनंतरत्वात् ।
स्थिति और ज्योतिष्काणाम्, इन पदों का अनुकर्षण कर समीचीन प्रत्यय कर लिया जाता है । क्योंकि वाक्यार्थके सम्पादक वे पद अव्यवहित पूर्व सूत्रोंमें उपात्त हो रहे हैं।
परेषामधिकं ज्ञेयं पल्योपममवस्थितिः । ज्योतिष्काणां च तद्वत्तदष्टभागोरोदिता ॥१॥