Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवातिके
लोकांतिकानां कल्पोपपन्नकल्पातीतेभ्योन्यत्वं माभूदिति तेषां कल्पवासिनियनोऽनेन क्रियते न ततो देवानां चतुःणिकायत्वनियमो विरुध्यते ।
लौकान्तिक देवों को कल्पोपपन्न और कल्पातीत देवोंसे भिन्नपना नहीं होवे इस कारण उन लोकान्तिकोंके कल्पवासीपने का नियम इस सूत्र करके किया गया है। तिस कारण देवों की चार निकाय होने का नियम विरुद्ध नहीं पड़ता है । अर्थात् लौकान्तिक देव चार निकायसे बाहिर नहीं हैं। किन्तु वैमानिक देवोंके कल्पोपपन्न भेदमें गभित होजाते हैं। ___ तद्विशेष प्रतिपादनार्थमाह।
अब ग्रन्थकार अग्रिमसूत्रका अवतरण हेतु यों कहते हैं कि सामान्य करके उपदिष्ट किये गये उन लोकान्तिकोंके विशेष भेदोंकी शिष्यों को प्रतिपत्ति कराने के लिये सू कार अग्रिम सूत्रको कहते हैं। सारस्वतादित्यवन्ह्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च ॥
१ सारस्वत २ आदित्य ३ वन्हि ४ अरुण ५ गर्दतोय ६ तुषित ७ अव्याबाध ८ अरिष्ट ये आठ लौकान्तिक देवों के गण हैं । समुच्चय अर्थ वाचक च शब्द करके अग्न्याभ, सूर्याभ, आदिक सोलहगण अन्य भी समझ लेने चाहिये।
___क्व इमे सारस्वतादयः पूर्वोतरादि दिक्षु यथाक्रमं । तद्यथा अरुणसमुद्रप्रभवो मूले संख्येययोजनविस्तारस्तमसः स्कंधः समुद्रवद्वलयाकृतिरतितीवांधकारपरिणामः स ऊध्वं क्रमवृध्द्या गच्छन् मध्ये ते वा संख्येययोजनबाहुल्यः अरिष्टविमानस्याधोभागे समेतः कुक्कुटकुटीवदवस्थितः । तस्योपरि तमोराजयोष्टावुत्पत्यारिष्टंद्रकविमानसमप्रणिधयः। तत्र चतसृष्वपि दिक्षु द्वन्द्वं गतास्तियंगालोकांतात् तवंतरेषु पूर्वोतरकोणादिषु सारस्वतादयो यथाक्रमं वेदितव्याः
ये सारस्वत आदिक लौकान्तिकोंके देवगण भला कहां स्थित होरहे हैं ? इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि पर्व और उत्तर दिशाके मध्य कोण होरहे ईशान आदि दिशाओं में अर्थात् ईशान विदिशामें सारस्वत देवोंके विमान हैं। पूर्व दिशामें आदित्य का विमान है। पूर्वदक्षिण यानी आग्नेय विदिशा में वन्हिजातीय लौकान्तिकों के विमान हैं। दक्षिण दिशा में अरुण का विमान है । दक्षिण पश्चिम कोण यानी नैऋत्य विदिशामें गर्दतोयोंके विमान हैं। पश्चिम दिशामें तुषितोंके विमान हैं। पश्चिम उत्तर कोग यानी वायव्य विदिशा में अव्यावाधों के विमान हैं। उत्तर दिशामें अरिष्ट जातीय लोकान्तिकों के विमान हैं । उसी को स्पष्ट रूपसे इस प्रकार समझना चाहिये कि नौमे अरुण समुद्रसे उत्पन्न हुआ और मूल मे संख्यात योजन विस्तार वाला अन्धकारका स्कन्ध ऊपर की ओर उठ रहा है । जो कि समुद्रके समान होरहा कंकणकी आकृति को धार रहा है । अत्यन्त तीव्र अन्धकार परिणाम स्वरूप हैं। अर्थात् चौमारे में वर्षायुक्त होरही अमावस्या की रात्रिके निबिड अन्धकार से भी अत्यधिक गाढ