Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिके
तीसरे अध्यायमें अधोलोक और मध्यलोकका वर्णन कर तथा चतुर्थ अध्यायमें छब्बीस सूत्रतक ऊर्ध्व लोकका निरूपण कर, प्रकरण नहीं होनेपर भी सूत्रकारने जो यहां तिर्यंच जीवोंका प्रतिपादन किया है, वह तो उन तियंचोंके सर्व लोकके आश्रितपनको प्रतिपत्ति करानेके लिये और संक्षेप करने के लिये है । यदि दूसरे अध्यायमें तिर्यंचोंके प्रकरणमें इस सूत्रका कथन किया जाता तो सम्पूर्ण तिर्यंचोंके भेदोंका वचन करते सन्ते सूत्रके गौरव दोष हो जानेका प्रसंग आता। दूसरे अध्यायमें तबतक नारकी, मनुष्य और देवोंका निरूपण भी नहीं किया गया था। वहां नारकी जीवों या मनुष्यों अथवा देवोंके प्रतिपादक सूत्र भर दिये जाते तो अर्थकृत और प्रमाणकृत भारी गौरव हो जाता। तीनों लोक और तीनों गतियों के जीवोंका वर्णन कर चुकनेपर यहां लघुतासे तिर्यंचोंका लक्षण और उनका निवास स्थान समझा दिया है । इन तिर्यंचोंके अधिकरणभूत संपूर्ण लोकमें आश्रित रहनेकी तो फिर परिशेष न्यायसे योजना कर ली जाती है। यानी तीन लोकका निरूपण कर चकनेपर तिर्यंचोंका यहां कथन करना उनके सर्व लोकमें व्याप कर ठहरनेको ध्वनित करता है।
तिर्यग्योनयो द्विविधाः सूक्ष्मा बादाराश्च, सूक्ष्मबादरनामकर्मद्वैविध्यात् । तत्र सूक्ष्माः सर्वलोकवासिनः, बादरास्तु नियतावासा इति नियतावासाभेदनिरूपणं तियंग्योनिशद्वनिरुक्त्या लक्षणनिरूपणं तिरश्चीन्यग्मतोपबाया योनियेषां ते तिर्यग्योनय इति । मनष्यादीनां केषांचित परोपबाह्यत्वात् तिर्यग्योनित्वप्रसंगादिति चेन्न, तिर्यग्नामकर्मोदये सतीति वचनात् ।।
तिर्यंच जीव दो प्रकारके हैं । नाम कर्मकी सूक्ष्म प्रकृति और बादर प्रकृति इन दो प्रकारके कर्मोंके उदय अनुसार हुये सूक्ष्म और बादर ये दो प्रकारके तिर्यंच हैं। उन दो भेदोंमें पृथिवी अप, तेज, वायु, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म तियं च संपूर्ण लोकमें निवास कर रहे हैं । और बादर हो रहे पृथिवी, तेज, अप्, वायु, वनस्पति, और विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच तो नियत हो रहे क्वचित् स्थानोंपर निवास करते हैं। इस प्रकार तिर्यंचोंके नियत हो रहे निवासस्थान और भेदोंका निरूपण कर दिया गया है । तिर्यग्योनि इस शब्द की निरुक्ति करके तिर्यचोंके लक्षणका निरूपण कर दिया जाता है। यौगिक शब्दोंकी निरुक्ति कर देनेसे वाच्यार्थका लक्षण सम्पन्न हो जाता है । जिस प्रकार कि पाचक, पालक, पालक, शद्वोंके निर्वचनसे ही रसोइया आदिके इतर व्यावर्तक लक्षण हो जाते हैं, इसी प्रकार यहां भी तिरश्ची न्यग्भूता यानी छिपी हुई जिनकी योनि उपजी है, वे जीव तिर्यग्योनि हैं । अथवा उपबाह्या यानी तिरस्कृत हो रही योनिको धारनेवाले जीव तिर्यग्योनि जीव हैं। भावार्थ-तिर्यचों में एकेन्द्रियोंकी संख्या अत्यधिक है। इन एकेन्द्रियोंकी योनि संवृत (ढकी हुई) है । अथवा स्वयं तिर्यचों करके अथवा मनुष्यों करके जो पद पदपर तिरस्कारको प्राप्त हो रहे हैं, वे तिर्यग्योनी जीव हैं । यहां कोई अतिप्रसंग दोष हो जानेकी शंका करता है कि किन्हीं किन्हीं मनुष्य, देव, आदिकोंका भी दूसरोंके द्वारा तिरस्कार हो रहा है । अतः उनको भी तिर्यग्योनिपनका प्रसंग हो जायगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह