Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 661
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ૬૪૬ हैं तो नहीं कहना । क्योंकि अन्तरंगमें तिर्यग् नाम कर्मका उदय होते सन्ते जो उपबाह्य हैं, वे तिर्यंच । इस प्रकार बन कर देनेसे कोई दोष नहीं आता है । निरुक्ति के साथ थोडा विशेषण और लगा दिया जाता है । संप्रति भवनवासिनां तावदुत्कृष्टस्थितिप्रतिपादनार्थमाह । उमास्वामी महाराजके प्रति किन्हींका पृष्टव्य है कि भगवन् ! अब इन जीवों की स्थिति कहनी चाहिये । नारकी, मनुष्य, तिर्यंचोंकी स्थिति तो आपने कह दी। देवोंकी नहीं कही है। अतः देवोंकी आयु किस प्रकार है ? यों पृष्टव्य होनंपर सबसे पहिले भवनवासियोंकी उत्कृष्ट स्थितिको प्रतिपादन करनेके लिये सूत्रकार इस अवसरपर अग्रिम सूत्रको स्पष्ट कहते हैं । स्थितिरसुरनाग सुपर्णद्वीपशेषणां सागरोपमत्रिपल्योपमार्धहीनभिता ॥ २८ ॥ भवनवासियोंमें असुरकुमारोंकी एक सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है । 'नागकुमारोंकी तीन पत्योपम परिमित है । सुपर्णकुमारोंकी आधा पल्यहीन यानी ढाई पल्योपम परा स्थिति है । द्वीपकुमारोंकी उससे आधे पल्य हीन यानी दो पल्योपम है । शेष छह प्रकार के भवनवासियोंका उससे भी आधापल्य कम अर्थात् -- डेढ अद्धापल्योपम काल परिमित उत्कृष्ट स्थिति है । असुरादीनां सागरोपमादिभि रभि संबंधो यथाक्रमं । असुरकुमार, नागकुमार, आदिको सागरोपम, त्रिपल्योपम, आदिके साथ क्रमका अतिक्रम नहीं कर उद्देश्य विधेय अनुसार संबंध कर लेना चाहिये । यों इस सूत्रके छोटे पांच वाक्य बना लिये जाय । सूत्रकार अब क्रमप्राप्त हो रही व्यन्तर और ज्योतिष देवोंका उल्लंघन कर वैमानिक देवकी स्थितिको कहते हैं । क्योंकि भविष्य में सरल उपायसे उनकी स्थिति कह दी जायगी। उन वैमानिकों के आदिमें कहे गये पहिले युगलकी स्थितिको समझानेके लिये अग्रिम सूत्रको कहते हैं । सौधर्मैशानयोः सागरोपमेधिके ॥ २९ ॥ सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में देवोंकी उत्कृष्ट आयु दो सागरसे कुछ अधिक है । द्विवचननिर्देशाद्वित्वगतिः, अधिके इत्यधिकार आसहस्रारात् । सागरोपमें यह शब्द द्विवचन " औ" विभक्तिका रूप है। अतः द्विवचनका कथन कर देने से द्वित्व संख्या की ज्ञप्ति हो जाती है, यानी दो सागर यह अर्थ निकल आता है। जैसे घटों का अर्थ दो घट है। इस सूत्र में " अधिके " यह अधिकार पद है, जो कि सहस्रार स्वर्गतक जान लेना चाहिये | क्योंकि "त्रिसप्त" आदि सूत्र में अधिकारका निवर्तक तु शब्द पडा हुआ है ।

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