Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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लिये हुये हैं । स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीरको धार रहे जीवोंकी कृष्ण आदिक तीन अशुभलेश्यायें इतने असंख्यात लोक प्रमाण उत्कृष्ट, मध्यम, और जघन्य आत्मक स्वरूपवाले उन कषायों के असंख्याता संख्यात उदय स्थानों में संक्लेशकी हानि करके परिणमन होजानेसे परिण तियाँ करती रहतीं हैं । अर्थात् कर्मोंके उदयकी जाति अपेक्षा असंख्याता संख्यात औदयिक कषाय स्थानोंमें संक्लेश की हानि होजानेसे उत्कृष्ट अंशसे मध्यम अंश में और मध्यम अंशसे जघन्य अंश में अशुभलेश्याओं का परिणमन होता रहता है । तथा जीवों को उत्तरवर्ती पीत आदि तीन शुभ लेश्यायें विशुद्धिकी विशेषतया वृद्धि होजानेसे असंख्यात लोक प्रमाण कषाय सम्बन्धी औदयिक जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट, अंश उपांशों में परिणमती रहती हैं । भावार्थ-शुद्धि की वृद्धि होजानेसे तेजोलेश्याके जघन्य अंशोंका अतिक्रमण कर मध्यम अंशों में आत्मा परिणत हो जाता है । और मध्यमसे शुद्धिकी वृद्धि अनुसार पोत लेश्या सम्बन्धी उत्कृष्ट अंशों में परिण मन कर लेता है । पद्मा और शुक्लालेश्या में भी यही व्यवस्था है । इसी प्रकार विपर्यय करने से यों निर्णय कर लेना कि विशुद्धिकी हानिसे शुभलेश्यायें उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंशोंमें क्रम से परिणमेंगी और इतर यानी अशुभलेश्यायें संक्लेशकी वृद्धि होजानेसे स्वकीय जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट अंशों में परिणतियां करेंगीं। एक एक कोई भी लेश्या असंख्यात लोक प्रमाण औदयिक कषायाध्यवसाय स्थानों को धार रही है। बात यह है कि कषायों के उदयागत भेदोंकी विशेषता से लेश्याओंमें विशेषतायें समझ लेनी चाहिये । " कषायोदयानुरंजिता योगप्रवृत्तिर्लेश्या " लेश्यापरिणति में कषायों के उदयकी प्रधानता है । कार्मणस्कन्ध या कर्म परमाणुओं की अपेक्षा अनन्तानन्त जीवों के यद्यपि अनन्त लेश्यायें हैं। फिर भी जातिकी अपेक्षा उनके असंख्यात लोक प्रमाण भेद कर दिये जाते हैं । असंख्यात लोकोंके प्रदेश बराबर प्रमाणको धार रहे अध्यवसाय स्थानों में जिनदृष्ट असंख्यात लोकप्रमाण राशिका भाग देने पर जो लब्ध आता है, उसके बहुभाग प्रमाण संक्लेशरूप स्थान हैं । और एक भाग प्रमाण शुभ लेश्याओंके विशुद्धिस्थान है । फिर भी सामान्यसे ये सभी असंख्यात लोकप्रमाण संख्यावाले हैं। इन अध्यवसाय स्थानों में लेश्यारूप परिणतियां होती रहती हैं ।
तथा संक्रमतः साध्या लेश्याः क्लेशविशुद्धिजात् । क्लिश्यमानस्य कृष्णायां न लेश्यांतरसंक्रमः ॥ ९ ॥ तस्यामेव तु षट्स्थानपतितेन विवर्धते । - हीयते च पुमानेष संक्रमेण निजक्रमात् ॥ १० ॥ कृष्णा प्राथमिक क्लेशस्थानाद्धि परिवर्धते । संख्येयादप्यसंख्येयभागतः स्वनिमित्ततः ॥ ११ ॥