Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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"तत्वार्थीचन्तामणिः
बहिरवस्थिताः ॥ १५ ॥
मनुष्य लोकसे बाहर वे ज्योतिष्क विमान या उनमें निवास करनेवाले ज्योतिषी देव जहांके तहां निश्चल हैं। अर्थात् — मनुष्य लोकसे बाहर भी ज्योतिष्कदेव असंख्याता संख्यात विद्यमान हैं । . किन्तु वे विमान गतिशील नहीं हैं। जहांके तहां अवस्थित हैं ।
किमनेन सूत्रेण कृतमित्याह ।
इस सूत्र करके सूत्रकार महाराजने क्या स्वपक्षमंडन और परपक्षखण्डन किया है ? ऐसी जिवासा होनेपर श्री विद्यानन्दस्वामी समाधान कहते हैं ।
बहिर्मनुष्यलोकांतेऽवस्थिता इति सूत्रतः न तत्राऽसत्ताव्यवच्छेदः प्रादक्षिण्यगतिक्षतिः ॥ १ ॥
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मनुष्य लोकके अन्तमें बाहर ज्योतिष्क विमान अवस्थित है, इस प्रकार सूत्र कर देने मनुष्य लोकसे बाहर ज्योतिषियों की असत्ताका व्यवच्छेद कर दिया जाता है और प्रदक्षिणारूपसे होनेवाली गतिकी क्षति कर दी जाती है। अर्थात् —-यदि यह "" “बंदिरवस्थिताः " सूत्र नहीं बनाया नाता तो पूर्वसूत्र अनुसार मनुष्य लोकमें ही ज्योतिष्कों का अस्तित्व सिद्ध होता । मनुष्य लोकसे बाहर उनका असत्त्व होजाता । तथा " बहिस्सन्ति " या " बहिरपि " ऐसा सूत्र बनाया जाता मनुष्य लोकसे बाहर ज्योतिष्कोंका अस्तिस्व तो सिद्ध होजाता, किन्तु उनकी पूर्व सूत्रानुसार मेरुकी प्रदक्षिणा करते हुये नित्यगति भी सिद्ध होजाती, जोकि इष्ट नहीं है। हां, इस सूत्र अवस्थिता ह देने से उनकी प्रदक्षिणापूर्वक गति या और भी दूसरे प्रकार की गतियों का व्यवच्छेद कर दिया गया है।
काही
कृतेति शेषः ।
इस घार्त्तिकमें कोई तिङत या कृदन्तकी क्रिया नहीं पडी हुयी है । अतः " कृता इल शेष रही क्रियाको जोड केना चाहिये । व्यवच्छेद के साथ पुल्लिंग कृत " शवको जोड़ देना और सीलिंग क्षतिः शब्द के साथ वाक्यमें शेष रह गयी " कृता इस कृदन्त सम्बन्धी, क्रियाको जोड़ लेना । क्योंकि कोई भी वाक्य धात्वर्थस्वरूप कियासे रीता नहीं हुआ करता है ।
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त
एवं सूत्रचतुष्टयाज्ज्योतिषामरचिंतनं ।
निवासादिविशेषेण युक्तं बाधविवर्जनात् ॥ २ ॥
इस प्रकार बाधक प्रमाणोंसे विवर्जित हो रहे चारों सूत्रों के प्रमेयसे भी जमानामी, महाराजेचे निषासस्थान, प्रकार, गति, अथवा स्थिति आदि विकोषों करके ब्योलिक दिनोंका समुचितं वितन