Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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क्या है ? सम्यग्दर्शन के बिना भी यथोचित तत्वोंका आलोचन होसकता है, भले ही उसको औपाधिक सम्यग्ज्ञान नहीं कहो । इसी प्रकार संसार से भीति कराने वाले संवेग परिणाम मिथ्या दृष्टि के भी होसकते हैं । रूप,धन, विद्या, कुल, बलके अभिमान, को सहस्रों अजैन कुचल डालते हैं । क्रोध, गर्व, ये सब औपाधिक भाव हैं, दुःखकारण है, इन सब बातों को सैकडों फकीर, भिक्षुक आदिक समझते हुये गारहे हैं। लाखों अजैन साध संवेगवश अभिमानके कारणों को लात मारते हुये मन्दकषाय, अल्प संक्लेश, आत्मविशद्धि, तत्वपर्यालोचना, संवेग, वैराग्य परिणामों को धाररहे बनों या पर्वत, गुफाओं, मे निवस रहे हैं । अतः ऊपर ऊपर के देव चाहे सम्यग्दृष्टि होंय अथवा मिथ्यादष्टि होंय, परिग्रह और अभिमानसे हीन हीन होरहे हैं। नौ अनुदिश और पांच अनुत्तरों में तो सम्यग्दृष्टि ही हैं। उनकी परिग्रहहीनता और अभिमानहीनता के अन्तरंग कारण मन्दकषायपन आदि को सुलभतासे समझाया जा सकता है । श्रद्धालु जैन या भक्त पुरुषों के प्रति इसमे अधिक युक्तियों के दिखलाने की आवश्यकता नहीं है । मन्द कषाय होने से अल्पसंक्लेश होता है । अल्प संक्लेश से विशुद्ध अवधि उपजती है। उससे ऊपर ऊपर देव शारीरिक,मानसिक, दुःखों से घेरे जारहे असंख्य नारकी तिथंच या मनुष्यों को तात्त्विक रूप से देखते हैं। उसको निमित्त पाकर संवेग परिणाम होता है। उस संवेगसे अनन्त दुःख के हेतु परिग्रहोंमें अभिमान नष्ट होजाता है । यों उक्त पदों की एक वाक्यता करली जाती है । __कथं पुनरुपर्युपरिभावो वैमानिकानां संगच्छत इत्याशंकायामिदमाह ।
कोई प्रतिवादी पण्डित आशंका उठाता हैं कि वैमानिक देवों का फिर ऊपर ऊपर उपपाद जन्म होना भला किस प्रकार संगत होजाता है ! ऐसी जिज्ञासा होने पर श्री. विद्यानन्द स्वामी समाधानार्थ उत्तर वात्तिक को कहते हैं ।
स्थित्यादिभिस्तथाधिक्यस्यान्यथानुपपत्तितः। नोपर्युपरिभावस्य तेषां शंकेति संगतिः ॥२॥
स्थिति, प्रभाव, आदि को करके तिस प्रकार अधिकपन की अन्यथा यानी ऊपर ऊपर उपपाद के विना अन्य प्रकारों से सिद्धि नहीं होसकती है । अतः उन वैमानिक देवों के उक्त पर
पर स्वर्गों, पटलों या कल्पातीत विमानों में उपपाद जन्म लेनेकी शंका नहीं करनी चाहिये अर्थात् इस प्रकार यहां विशुद्ध परिणामों को निमित्त पाकर हुये पुण्यकर्म भेदोंके अनुसार देव ऊपर ऊपर उपज जाते हैं। स्थिति, प्रभाव, आदि की अधिकता होनेसे ही देवों में ऊपर ऊपर गति शरीर, आदि की हीनता स्वयमेव सिद्ध होजाती है। जैसे कि किसी धर्मात्मा पुरुष में जिनेन्द्रभक्ति, दयाभाव, व्रतपालन, ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, आचरण, की वृद्धि होते संते स्वयं वहां यहां व्यर्थ गमन, शरीरवृद्धि, परिग्रह अहंकार इन की त्रुटि निर्णीत होजाती हैं। सम्यग्दर्शन, सदाचार आदि गुणों की अधिकता से सज्जन पुरुषों में उस पुरुष की उत्तरोत्तर ख्याति बढती है। अथवा देश में सुराज्य होने पर सुभिक्षा, शिक्षा, नीरोगता, समृद्धि, वाणिज्य