Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थकोपानातिक
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चौडी और एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस हमारे तुम्हारे आश्रय हो रही रत्नप्रभा भूमिको या इस छोटेसे भरतक्षेत्रको सपाट समतल मान लिया जाय तो भी प्रत्यक्ष ऊपर दीख रहे इन योतिष्क विमानों की गति अनुसार समान दिन रात आदि हो जाते हैं। इन सिद्धान्तों को साधने में अभी पूर्व प्रन्थद्वारा हम उपपत्ति दे चुके हैं। इस कारण इस समरात्र आदि दीखनास्वरूप हेतुसे भूमिके गोल आकार साध्यकी सिद्धि नहीं होसकती है। व्यभिचारके अतिरिक्त दूसरा दोष यह भी है कि तुम्हारा तु कालात्ययापदिष्ट यानी बाधित हेत्वाभास है। क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाण और आगमप्रमाणसे बाधे जाचुके प्रतिज्ञाकथन के अनन्तर प्रयुक्त होरहा है । यदि प्रमाणबाधित पक्षके होनेपर भी पुनः बलात्कारसे हेतुका प्रयोग कर दिया जायगा तो अतिप्रसँग दोष बन बैठेगा । "अग्निरनुष्णः द्रव्यत्वात्, प्रेत्य दुःखप्रदो धर्मः पुरुषाश्रितत्वात् " आदि असत् हेतु भी समीचीन हेतु बन जायेंगे । तिस कारण हेत्वाभाससे उत्पन्न हुआ यह तुम्हारा अनुमान हम जैनों के प्रकरणप्राप्त आगमका बाधक नहीं है । जिससे कि इस आगमसे ही हमारे इष्ट सिद्धान्त की सिद्धि नहीं होजाती । अर्थात् — आप्तोपन आगम द्वारा ज्योतिष्क देवों की गति, भूमिका समतल आकार, आदिक सब सध जाते हैं । व्यर्थ की शंकाओं में कोई लाभ नहीं है । कतिपय यूरोपीय विद्वान भी पृथिवीको अचला सिद्ध करने के लिये अनेक युक्तियों द्वारा उन्मुख होरहे हैं । अन्तमें जाकर सबको वही सर्वज्ञोक्त आम्नाय अनुसार सिद्धान्त मानना पडेगा ।
ज्योतिःशास्त्रमतो युक्तं नैतत्स्याद्वादविद्विषां ।
संवादकमनेकांते सति तस्य प्रतिष्ठिते ॥ १७ ॥
इस कारण स्याद्वादियों के यहां ज्योतिषशास्त्र युक्तिपूर्ण सब जाता है । स्याद्वाद सिद्धान्त के साथ विद्वेष रखनेवाले पण्डितोंके यहां यह ज्योतिषशास्त्र समुचित होकर सम्वादक नहीं व्यवस्थित होरहा है। क्योंकि अनेकान्तसिद्धान्त के प्रतिष्ठाप्राप्त हो चुकनेपर उस ज्योतिषशास्त्रका सम्वादकपना निर्णीत होता है । बाधकप्रमाणोंसे रहितपना या सफलप्रवृत्तिका जनकपनारूप संवाद तो पदार्थोंमें अनेक धर्म मानने पर ही घटित होता है ।
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न हि किंचित्सर्वथैकांते ज्योतिःशास्त्रे संवादकं व्यवतिष्ठते प्रत्यक्षादिवत् नित्याद्येकांतरूपस्य तद्विषयस्य सुनिश्चितासंभवद्बाधकत्वाभावात् तस्य दृष्टेष्टाभ्यां बाधनात् । ततः स्याद्वादिनामेव तद्युक्तं, सत्यनेकांत तत्प्रतिष्ठानात् तत्र सर्वथा बाधकविरहितनिश्चयात् ।
ज्योतिषशास्त्रको सर्वथा एकान्तस्वरूप मान लिया जावे तो कुछ भी सूर्यग्रहण आदि परिणाम बाधारहित सिद्ध नहीं होते हैं। जैसे कि प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों में संवादकपना सर्वथा एकान्तपक्ष माननेपर घटित नहीं होता है। अथवा सर्वथा एकान्तं पक्षमें ज्योतिषशास्त्र सफल प्रवृत्तिका जनक नहीं बन पाता है | जैसे कि प्रत्यक्ष, अनुमान, आदिक प्रमाण सर्वथा एकान्त माननेपर संवादक नहीं है।