Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तचार्यश्लोक बार्तिक
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इस प्रकार आप्तोपज्ञ शास्त्रोंसे निर्णीत किया जाता है । अतः ऊँचा नीचा, टेढा, मेढा, गमन हो जानेसे कुण्ठविषाण या तीक्ष्णविषाण सारिखा हो गया ग्रहोपराग प्रतीत हो जाता है।
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तदाभियोग्यदेवानां सिंहादिरूपविकारिणां कुतो गतिभेदस्ताहेक इति चेत्, स्वभावत एव पूर्वोपात्तकर्मविशेषनिमित्तकादिति ब्रूमः । सर्वेषामेवमभ्युपगमस्यावश्यंभावित्वादन्यथा स्वेष्टविशेषव्यवस्थानुपपत्तेः तत्प्रतिपादकस्यागमस्या संभवद्वाधकस्य सद्भावच्च ।
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यदि यहां कोई यो प्रश्न करे कि उन सूर्य आदिके वाहक सिंह आदि रूपों की विक्रियाको धारनेवाले आभियोग्य देवों की तिस प्रकारको विशेष गति भला किस कारणसे होजाती है ! यो पूछने पर तो हम सगौरव यह उत्तर कहते हैं कि स्वभावते ही उन देवोंकी वैसी वैसी गति होजाती है । वायु या रक्तकी होरहीं गतियों पर कुचोच चलाना व्यर्थ है। दो चार कोटीतक कारण बताते हुये भी अन्तमें जाकर स्वभावपर ही टिककर सन्तोष प्राप्त होता है । पूर्व जन्मोंमें, उपात्त किये गये कर्मविशेषोंका निमित्त पाकर उन आभियोग जातीय देवों की स्वभावसे ही वैसी वैसी नाना प्रकारकी गति होजाती है, जिससे कि शुक्लपक्ष की द्वितीया को कभी ऊंचे खड्ग समान, कभी तिरछे खड्ग समान, कदाचित् मौथरा, पैंना, सींगलारिखा चन्द्रमा दीख जाता है। ग्रहणमें भी ऐसी ही दशा प्राप्त हो जाती है । ग्रहणके अवसरपर किरणों या कलाओंके ढक जाने की अपेक्षा यह सिद्धान्त सर्वागसुंदर प्रतीत होता है कि वैसी परिस्थिति अनुसार उतनी ही मन्दकान्ति स्वभावसे ही उपज जाती है। जैसे कि गाढ अन्धकार होजानेपर दर्पण में प्रतिबिंत्र नहीं पडता है, या प्रयोग के बिना पानी ऊपरको नहीं चढता है। सम्पूर्ण वादी प्रतिवादियों के यहां इस प्रकार स्वभावका स्वीकार करना आवश्यक रूपसे होनेवाला कार्य है। अग्निज्वालाका स्वभाव ऊपरको जाना है, गुरुपदार्थ अधःपतन स्वभाव वाले हैं । ज्ञान आत्म स्वभाव है। पुद्गल के स्वभाव रूप आदिक हैं। यों सभीको वस्तुओं के स्वभाव मानने पडते हैं । अन्यथा' अपने अभीष्ट विशेष तस्त्रोंकी व्यवस्था नहीं बन सकती है। दूसरी बात यह है कि उन वाहक अभियोग्य देवोंकी गतिविशेषका प्रतिपादन करनेवाला आगम विद्यमान है । जिसके कि बाधक प्रमाणों का भसम्भव होरहा है । ज्योतिषशास्त्र के विषयमें आगमकी शरण प्रायः सबको लेनी पडती है । इसके विना कोई ऐन्द्रियिक प्रत्यक्ष दर्शनका अभिमान ( शेखी ) वखाननेवाले दो दो चार चार जन्मतक भी एक नक्षत्रकी मुक्तिका भी निर्णय नहीं कर सकते हैं । सम्पूर्ण ज्योतिषशास्त्र का जानना तो अतीव दुर्लभ हैं। हां, त्रिलोक त्रिकालज्ञ आप्तके द्वारा कहे गये शास्त्रों द्वारा स्तोककालमें पूर्ण निर्णय कर लिया जाता हैं । ' गोलाकारा भूमिः समरात्रादिदर्शनान्यथानुपपत्तेरित्येतद्बाधकमागमस्यास्येति चेत् न, अत्रहेतीरप्रयोजकत्वात् । समरात्रादिदर्शनं हि यदि तिष्ठद्भूमेर्गोलाकारतायां साध्यायां हेतुस्तदा न प्रयोजकः स्यात् भ्राम्यद्भूर्गोलाका रतायामपि तदुपपत्तेः । अथ भ्रमद्भूमेगोलाकारताय साध्यायां तथाप्यप्रयोजको हेतुस्तिद भूगोलाकारतायामपि तदघटनात् ।
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