Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थो वार्तिके
असुर, नाग, विद्युत् इत्यादि सूत्रमें और किन्नर किम्पुरुष आदि सूत्रमें देवता वाचक पदोंका द्वन्द्व समास होनेपर भी आनड् नहीं किया गया है । इस कारण पुनः द्वन्द्वपद के प्रहण करनेसे उ आनङ्की इष्ट हो रहे विषयमें व्यवस्था है। भट्टोजि दीक्षितने भी " पुनर्द्वन्द्वप्रहणं प्रसिद्धसाहचर्यस्य परिग्रहार्थं " बहकर इसी अर्थ को व्यक्त किया है ।
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कथं ज्योतिष्काः पंचविकल्पाः सिद्धा इत्याह ।
यहां कोई त उठाता है कि सूत्रमें कड़े जा चुके पांच विकल्पवाले ज्योतिष्कदेव भला किस प्रकार सिद्ध हैं ? सूर्य, चन्द्रम, आदि विमान तो प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा प्रतीत हो रहे हैं । किन्तु उनमें I रहनेवाले ज्योतिष्फ निकाय के देवोंका अस्मादृश पुरुषों को प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है। ऐसी दशामें देवोंकी सिद्धि किस प्रमाणले निर्णीत कर ली जाय ? बताओ । यों बैंडी तर्कके उपस्थित होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी वार्त्तिक द्वारा इस प्रकार वक्ष्यमाण समाधान वचनको कहते हैं ।
ज्योतिष्काः पंचधा दृष्टाः सूर्याद्या ज्योतिराश्रिताः । नामकर्मवशात्तादृक संज्ञा सामान्यभेदतः ॥ १ ॥
दिन या रात को आकाशमें चमक रहे सूर्य आदिक पांच प्रकारके विमान देखे गये हैं । विमान और विमानों में रहनेवाले देव दोनों ही ज्योति के आश्रय हो रहे ज्योतिष्क निर्णीत किये जाते हैं । तिस तिस जाति उदयापन नामकर्मकी अधीनतासे उन देवों की सामान्य और विशेषरूप करके ज्योतिष्क और सूर्य आदि तैसीं संज्ञायें हो जाती हैं ।
ज्योतिष्कनामकर्मोदये सति तदाश्रयत्वाज्ज्योतिष्का इति सामान्यतस्तेषां संज्ञा सूर्यादिनामकर्मविशेषोदयात्सूर्याद्या इति विशेषसंज्ञाः । त एते पंचधापि दृष्टाः प्रत्यक्षज्ञानिभिः साक्षात्कृतास्तदुपदेशाविसंवादान्यथानुपपत्तेः ।
गतिकर्मकी उत्तरोत्तर प्रकृति हो रही ज्योतिष्क संज्ञक नामकर्मका उदय होते संते उस ज्योतिः ( कान्ति ) का आश्रय होनेसे देव ज्योतिष्क हैं । इस प्रकार उन देवोंकी ज्योतिष्क यह सामान्यरूपसे संज्ञा हो रही है। हां, जीवविपाकी उस देवगति प्रकृति के उत्तरोत्तर भेद, प्रभेद हो रहे सूर्य, चन्द्रमा, आदि विशेष नामकर्मों के उदयसे विशेषदेवों की सूर्य, चन्द्रमा, आदिक ये विशेषसंज्ञायें अनादिकालसे प्रवृत्त रही हैं। जैसे कि मनुष्यगतिका उसके विशेष कहे गये आर्य, म्लेच्छ, भोगभूमि, आदि पौद्गलिक प्रकृतियोंका विपाक होनेपर हम, तुम, आदि जीव मनुष्य या आर्य आदि कहे जा रहे हैं, उसी प्रकार अन्तरंग कारणोंकी भित्तिपर ज्योतिष्कदेव या सूर्य आदिक देवोंकी व्यवस्थायें सयुक्तिक प्रतिभासित हो जाती हैं। अनन्तानन्त सूक्ष्मविषयोंका केवलज्ञानियोंने प्रत्यक्ष किया है। हां, उनके उपदिष्ट शाखाद्वारा साधारणज्ञानी श्रद्धालु जीव भी त्रिविप्रकृष्ट पदार्थो का श्रुतज्ञान कर लेते हैं ।