Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वायचिन्तामणिः
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जाता है। छोटे हजार योजन इट इटकर प्रति दिन उदय होनेसे उत्तर दक्षिणकी ओर सूर्योदयका प्रतिभासना उचित ही है ।
सूर्यपरिणामदक्षिणोत्तरसमप्रणिधिभूभागादन्यप्रदेशे कुतः प्राची सिद्धिरिति चेत्, बदनंतरमंडले तथा सर्वाभिमुखमादित्यस्योदयादेवेति सर्वमनवद्यं, क्षेत्रांतरेपि तथा व्यवहार सिद्धेः । कोई पूंछता है कि सूर्योदय परिणाम के धारी पूर्वदेशों या उसके समतल निकटवर्ती उत्तर दक्षिण भूभागों में सूर्योदय अनुसार पूर्वदिशा की भले ही प्रसिद्धि हो जाय, किन्तु उनसे न्यारे अन्य प्रदेशों में भला पूर्वदिशा की सिद्धि किस ढंगसे करोगे ? इस प्रकार पूछने पर तो हम समाधान करते हैं कि उसके अव्यवहित परली ओर के मण्डलपर तिस प्रकार दूरवर्त्ती होकर सबके सन्मुख तीन मौ त्रानवै छोटे योजन लम्बे चौडे सूर्यके उदय होनेसे ही पूर्वदिशा की सिद्धि हो जाती है । अर्थात्जम्बूद्वीप के आमने सामने हो रहे दो सूर्य जब जम्बूद्वीपकी वेदीके ऊपर पांच सौ दस योजन क्षेत्रमें सब ओर घूम रहे हैं तो सबसे पहिले उदय अनुसार सब देशवालोंको पूर्वदिशाको सिद्धि हो जाती है, सूर्योदय अनुसार पूर्वदिशाकी कल्पना करनेपर भिन्न भिन्न देशवालों को दिशाओंका सांकर्य भी हो जाता है, तभी तो " सर्वेषामेव वर्षाणां मेरुरुत्तरतः स्थितः " यह नियम अक्षुण्ण बन जाता है । इस प्रकार जैन सिद्धान्त अनुसार सम्पूर्ण व्यवस्था निर्दोष बन जाती है । हैमवत, हरि, विदेह, आदि न्यारे न्यारे क्षेत्रोंमें भी तिस प्रकार पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, दिशाओंके व्यवहार प्रसिद्ध हो जाते हैं । कोई दोष नहीं आता
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तदेतेन प्राचीदर्शनाद्धरायां गोलाकारतासाधनमप्रयोजकमुक्तं तत्र तत्र दर्पणाकारतायामपि प्राचीदर्शनोपपत्तेः । यदा तु सूर्यः सर्वाभ्यंतरमंडले चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्रैरष्टाभिश्च योजनशतैर्विशैर्मेरुमप्राप्य प्रकाशयति तदाहन्यष्टादश मुहूर्ता भवन्ति । चत्वारिंशषट्छताधिकनवनवतियोजनसहस्रविष्कंभस्य त्रिगुणसातिरेकपरिधेस्तन्मण्डलस्यैकान्नत्रिंशद्योजन - षष्ठिभागाधिकैकपंचाशद्विशतोत्तरयोजन सहस्रपंचकमात्र मुहूर्त गतिक्षेत्रत्वसिद्धेः सैषा मकर्ष - पर्यन्ततः प्राप्ता दिवावृद्धिहानिश्च रात्रौ सूर्यगतिभेदादभ्यंतरमंडलात् सिद्धा ।
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तिस कारण इस कथन करके उस भूगोलको माननेवाले का यह हेतु अनुकूलतर्करहित कह दिया जा चुका है कि प्राची दिशा के देखनेसे पृथिवीमें गोल आकारका साधन कर लिया जाता 1 क्योंकि उन उन प्रान्तोमें भूमिका दर्पण के समान समतल आकार बन जाता है। अर्थात्-न्यारे न्यारे मण्डलोंपर सूर्यका उदय हो भिन्न दिनोंमें अपने अपने सन्मुख सूर्योदय अनुसार पूर्वदिशा दीख सबसे बड़े दिन के अवसरपर सम्पूर्ण मण्डों के भीतरले मण्डलमें चालीस हजार योजन और आठ
जाती है। हां, जिस समय सूर्य
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होनेपर भी पूर्वदिशा का दीख जाना जानेसे अनेकदेशीय पुरुषों को भिन्न