Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
भवनवासी आदि देवोंके शद्बनिरुक्ति करके जैसे निवासस्थानोंकी प्रतिपत्ति हो जाती है, अर्थात्-भवनों में निवास करनेकी टेव रखते हुये भवनवासी हैं और विविध देशान्तरोंमें अवकाश पा रहे व्यन्तर हैं, विमानोंमें निवास कर रहे वैमानिक हैं, इस प्रकार ज्योतिष्क देवोंके निवास स्थानोंकी परिच्छित्ति केवल " ज्योतिष्क" शब्दकी निरुक्ति कर देनेसे नहीं हो पाती है जिससे कि ज्योतिषियोंके निवासस्थानोंकी प्रतिपत्ति कराने के लिये सूत्रकार द्वारा " नृलोके ” यह नहीं कहा जाय ! ज्योतिष्क शब्द तो केवल धुति, प्रकाश, या चमकना मात्र स्वभावोंका प्रतिपादन कर रहा है। किन्तु यहां ज्योतिषियोंके आवासका परिज्ञान कराना अत्यावश्यक है। कोई नम्र श्रोता पूंछता है कि मनुष्यलोकमें उन ज्योतिष्कोंके नियत हो रहे आवासस्थान फिर कहां शास्त्र द्वारा ज्ञात किये जा रहे हैं ! बताओ, ऐसी बुभुत्सा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य अग्रिम वार्तिकोंको कहते हैं।
अस्मात्समाद्धराभागादूर्व तेषां प्रकाशिताः ।
आवासाः क्रमशः सर्वज्योतिषां विश्ववेदिभिः ॥२॥ जगद्वर्ती सम्पूर्ण पदार्थोका साक्षात् वेदन करनेवाले केवलज्ञानी महाराजने वादी, प्रतिवादी या वक्ता श्रोताको परिदृष्ट हो रही इस रत्नप्रभा भूमिके समतल भागसे ऊपर स्थानोंमें उन सम्पूर्ण ज्योतिषी देवोंके आवासस्थानोंको यों वक्ष्यमाण प्रकार करके क्रम क्रमसे प्रकाशित किया है । अर्थात्-छठे दुःषमा कालके अन्तमें चलनेवाले संवर्तक नामा वायु करके इस आर्यखण्डके गिरि, वृक्ष, भूप्रदेश ये सब कार्य नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं । एक हजार भोजन नीचे तक भूमि चकनाचूर हो जाती है । ऐसी दशामें नाप बिगड जाता है। अतः समतल भूभागसे यानी सुदर्शन मेरुकी जडसे ठीक एक हजार योजन ऊपर जम रही मध्यलोक व्यापिनी इस विद्यमान दृश्यमान चित्राभूमिके ऊपर तलसे योजनोंको नापकर ज्योतिष्फ विमानों का विन्यास हो रहा समझ लेना चाहिये तथा लवणसमुद्रका जल इस चित्रा भूमिके समतलसे जलहानि दशामें ग्यारह हजार और जलवृद्धि दशामें सोलह हजार योजनतक ऊंचा उठ रहा है, लवणसमुद्र सम्बन्धी सूर्य, चन्द्रमा, आदि तो जलमें ही घूमते रहते हैं। कोई आतुर पण्डित जलके उपरिमतलमें ज्योतिषियोंको ऊंचा नहीं नाप बैठे इसलिए पृथिवीके "समभागसे ऊपर" यह ग्रन्थकारका वाक्य साभिप्राय है । गणित शास्त्रज्ञोंको एक एक अंगुल यहांतक कि एक एक प्रदेश, एवं शून्य बिन्दु आदि तकका लक्ष्य रखना पडता है । इस ग्रन्थको सुनने समझनेवाले पदि गृह की छतपर बैठे हुये हों या कई सीढियां चढकर ऊपरके स्थानोंमें बैठे पे अथवा कालदोषसे हुये चित्राभूमके नीचे ऊंचे प्रदेशोपर विराज हे होंप तो ऐसी दशामें नाप करनेवाले ठक ठीक नाप नहीं कर पायेंगे । अतः गणितज्ञोंका सूक्ष्म पश्य कराने के लिये घराके समतल भागको ध्रुव अपादान नियत कर दिया है । बाभूमि के उपरिमभानसे अक एक हजार योजन ऊंचा चित्राका जपरल समसर है । बस, ना ही जमकर बैठ जाइये ।