Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
मुख समान मुख होनेसे कुत्सित नर हो रहे रमणकुशल देवोंकी अनेक देवदेवियोंको अभिलाषा रही आती है । " बिम्बोष्ठं बहुमनुते तुरंगवक्त्रः ” इत्यादि श्लोक करके माध कक्नेि स्वरचित शिशुपालवध काव्यमें इसी भावको दिखलाया है । और किम्पुरुषोंकी कामना कर रहे हैं, इस कारण किम्पुरुष देव कहे जाते हैं । " पिसितमाचामति या पिशितमश्नाति " इस निरुक्ति द्वारा मांसका भक्षण करनेसे पिशाच हैं । महान् सर्पका आकार धारनेसे महोरग हैं, इत्यादिक शनिरुक्ति अनुसार उक्त देवोंकी अन्वर्थसंज्ञा माननेपर आचार्य कहते हैं कि बडे भारी अवर्णवाद होनेका प्रसंग आता है। क्योंकि देवोंके तिस प्रकार किन्नरोंके साथ रमण, मांसभक्षण, सर्पचेष्टा, आदिका असम्भव है । देव स्वतः बडे भोगी और सर्वांगसुंदर हैं । देवोंके वैक्रियक शरीर अत्यधिक पवित्र हैं । अशुद्ध, दुर्गन्धि, घृणायोग्य, मनुष्यों के निकृष्ट औदारिक शरीरोंकी वे कभी अभिलाषा नहीं करते हैं । मांस, मद्य, सेवन नहीं करते हैं । यदि कोई यों आक्षेप करें कि पिशाचोंकी मछली, मांस, मदिरा, नैवेद्य आदिमें प्रवृत्ति होरही दीखनेसे मांसभक्षण करना उनके सम्भव जाता है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि क्रीडाजन्य सुखका निमित्तकारण मात्र वह प्रवृत्ति है।आहारके लिये मत्स्य, मांस, आदिमें प्रवृत्ति नहीं है। क्योंकि उन देवोंके मानस आहार है। मनमें आहारकी अभिलाषा उपजते ही झठ कण्ठसे अमृतोपम, सुस्वादु, रस झरकर पूर्ण तृप्तिको कर देता है । अर्थात्-देवोंमें तीव्र कषायवान् या जीवोंको दुःख देकर भी क्रीडा करनेवाले अनेक देव हैं । म्लेच्छ या कसाइयोंके छोकरे मेंडक, चूहा, बरं, ततैया, चिरैया, पिल्ला, मछली, मांसखण्ड, हण्डी आदिके साथ निर्दय होकर खेलते हैं । उसीमें विशेष हर्षका अनुभव करते हैं। विद्रोह कालमें प्रतिपक्षियोंके बालकोंको गेंद बनाकर दुष्ट खिलाडियोंका क्रीडा करना सुना जाता है । इस क्रियामें अनेक बालकोंकी मृत्युयें भी होचुकी हैं। किन्तु कषायवानोंको कोई चिन्ता ( परवा ) नहीं है । इसी प्रकार क्रीडा सुखके लिये अनेक मिथ्यादृष्टि देव मत्स्य आदिमें प्रवृत्ति करते हैं। तांत्रिक विद्वान् मत्स्य, मांस, आदिको दिखाकर देवोंका परितृप्त होना मानते हुये मत्स्य, मांस, मद्य, रक्त, मल, शव आदि द्वारा जीवोंकी भूतबाधाओंको मिटा देते हैं । ये सब क्रियायें क्रीडाप्रकृतिक देवोंके सुखनिमित्त भले ही होजाय, किन्तु आहारसामग्री यह नहीं हैं । देवोंके मांसभक्षण या मानुष शरीरके साथ रमण अथवा धातु, उपधातु, सन्तानोत्पत्ति आदि स्वीकार कर लेना यह देवोंका सबसे बडा तिरस्कार है। देवोंके लिये इससे बडी गाली नहीं होसकती है । अतः व्यन्तरोंकी उक्त संज्ञायें या विधाता नामकर्मकी किन्नर आदि संज्ञायें रूढि शब्दमात्र है । धात्वर्थ उतना ही घटाया जाय जितना कि युक्ति, शास्त्र, और अनुभवसे अबाधित होय । शेषको विचारशाली विद्वान् लात मारकर फेंक देते हैं ।
क पुनर्व्यतराणां विविधान्यंतराण्यवकाशस्थानाख्यानि यतो निरुक्तिसामदेितेषामाधारमतिपत्तिरित्यार।