Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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आदिका अपने द्रव्यके साथ अभेद साधना कठिन कसाला है क्योंकि नील घटका ही अग्निसंयोगसे लाख घट होजाता है आत्मा बना रहता है उसका गुण या पर्याय होरहा ज्ञान विघट जाता नर्तकी अनेक शरीरक्रियाओंको विनाशती, उपजावती, घण्टों तक वहकी वही नाचती रहता है, सामान्य या विशेषों में भी सर्वथा अभेद दुर्लभ है । अतः नित्य गुण और गुणी द्रव्यका सर्वथा भेद माने जाना वैशेषिकों का असत् आग्रह 1
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न केवलमनित्याद्गुणात्कर्मादेव गुणी जीवादिद्रव्यपदार्थः सर्वथा भिन्नो न सिद्धः । किं तर्हि ? नित्यादपि गुणादर्शनादिसामान्यान्न सर्वथा भिन्नस्तस्य तथानादिपर्यन्तपरिणामात्तथा व्यवस्थितत्वाज्जीवत्वादिवत् । कथंचित्तादात्म्याभावे तस्य तद्गुणत्वविरोधाद्द्द्द्रव्यांतर गुणवत् ।
क्या
अनित्य होरहे गुणसे अथवा कर्मसामान्य आदिसे सर्वथा भिन्न होरहे गुणवान् जीव, पुद्गल आदिक द्रव्य पदार्थ ही सिद्ध नहीं होसकते हैं केवल इतना ही नहीं है तो और क्या है ? इसका उत्तर यह है कि नित्य द्रव्यके अनुजीवी होते हुये नित्य हो रहे दर्शन, चारित्र, वीर्य, रूप, रस, आदि सामान्य गुणोंसे भी जीवादिक पदार्थ सर्वथा भिन्न नहीं हैं। जैसा कि सर्व भेदको वैशेषिक मान बैठे हैं। क्योंकि तिस प्रकार द्रव्य और गुणका तदात्मकपने करके अनादि से अनन्तकाल तक परिणाम हो रहा है । अतः तिस प्रकार सर्वथा भिन्नता नहीं होते हुये कथंचित् अभेद व्यवस्थित हो रहा है। जैसे कि जीवद्रव्यमें चैतन्य या द्रव्य प्राण अथवा भावप्राणधारण करा देनेवाले स्वरूप जीवत्व गुण या पुद्गलमें रूप, रस, आदि के साहचर्य परिणामका प्रयोजक पुगलत्व इसी प्रकार आकाश आदि द्रव्योंमें अवगाहप्रयोजक आकाशत्व आदि गुण उपजीव्य उपजीवक रूपसे तदात्मक होते हुये कथंचित् अभिन्न हैं । यदि गुण और गुणीमें कथंचित् तदात्मकपना नहीं माना जायगा । तो उस प्रकृत गुणको नियत गुणके गुण हो जानेपनका विरोध हो जायगा जैसे कि अन्य द्रव्यों के गुण इस प्रकरण प्राप्त द्रव्य के गुण नहीं माने गये हैं । आत्मासे भिन्न पडा हुआ रुपया या पैसा जैसे किसी नियत व्यक्तिका नहीं है । बजाज, सराफ, पंसारी, हलवाई, भृत्य, बालक, सभीका हो सकता है उसी प्रकार आत्मासे भिन्न पडा हुआ ज्ञान गुण आकाशका या घटका भी हो जाय तो वैशेषिकों के यहां कौन रोकनेवाला है ? हां, अभेद पक्षमें यह आक्षेप नहीं चल सकता 1
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तत्र समवायात्तस्य तद्गुणत्वमिति चेन्न, समवायस्य समवायितादात्म्यस्य प्रसाधि - तत्वात् । ततः सर्वस्य विवादाध्यासितस्य तनुकरणभुवनादेः सर्वथा बुद्धिमत्कारणत्वे साध्ये कथंचित्कार्यत्वं साधनं स्वेष्टविपरीतं कथंचिदबुद्धिमन्निमित्तत्वं प्रसाधयेदेवेति विरुद्धं भवेत् । सर्वथात्र कार्यत्वमसिद्धमिति दुष्परिहरमेवैतदूषणद्वयं ।
यदि वैशेषिक यों कहें कि उस नियत गुणी द्रव्यमें उस गुणका समवाय सम्बन्ध हो रहा | अतः उसको नियत रूपसे उसका गुणपना है । अर्थात् — आत्मामें ज्ञानका समवाय है अतः ज्ञ