Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
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वर्गणाका आकर्षण कर स्वकीय पुरुषार्थस्वरूप हो रही पर्याप्तिशक्तिकरके उन वर्गणाओं को काठ रूप बना लेता है वह शरीर उस जीवका कायबलप्राण कहा जाता है। सोने की खानका एक इन्द्रिय जीव अनेक कर्मोंके पराधीन हो रहा इसी प्रकार नोकर्म वर्गणाका स्वकीय शरीर सोना बना लेता है । हीरा, पन्ना, पाषाणकी सृष्टि भी इसी ढंगले हो जाती है । द्वीन्द्रिय सीपका जीव जल विशेषको अपने दैव या पुरुषार्थ द्वारा मुक्ताफल रूप परिणमा लेता है जैसे कि रेशमका कीडा रेशमको, या गाय भैंस जीव अपने खाये गये भुस, घास, खल, वनोरे, आदिका दूध बना लेती हैं । कीडी, मकोडे, मक्खी, बर्र, घोडा, हाथी, तोता, कबूतर, मनुष्य, स्त्री, ये जीव कतिपय कर्मोका उदय होनेपर स्वकीय पर्याप्तियों द्वारा या अन्य अनेक व्यक्त अव्यक्त पुरुषार्थी करके मांस, रक्त, मेद, चर्बी, आदि धातु अथवा उपधातु या मल मूत्र तथा ज्वर, सन्निपात आदि कार्यों के कर्त्ता माने जा सकते हैं । किन्तु अनादिनिधन लोक, सूर्य, अनेक द्वीप, समुद्र आदिका स्वतंत्र कर्त्ता कोई बुद्धिमान् नियत नहीं है । बढिया शिल्पकार, या वैज्ञानिक द्वारा बनाये गये नहीं होनेसे मुक्ताफल आदिको अकृत्रिम कह दिया है । वस्तुतः अन्न, मांस, मोती, आदिक किसी अपेक्षा कृत्रिम माने जा सकते हैं किन्तु छह द्रव्यों का समुदाय रूप यह लोक या सूर्य, चन्द्रमा, सुमेरु, द्वीप, समुद्र, स्वर्गस्थान, नरकस्थान, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, अकृत्रिम चैत्यालय, आठ भूमियां, वातवलय आदिक पिण्डोंका समुदाय रूप यह लोक तो अकृत्रिम ही है । अतः हमारे हेतुका नियत साध्य के साथ अविनाभाव बना रहना पुष्ट प्रमाणोंसे सिद्ध है । अनुकूल तर्कवाला यह हेतु अपने साध्य को अवश्य साधेगा |
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न हि कृत्रिमार्थविलक्षण गगनादिः कृत्रिमः सिद्धो येन साध्यव्यावृत्तौ साधनव्यावृत्ति निश्चतान्यथानुपपत्तिरस्य हेतोर्न सिध्येत् ।
कर्त्ता द्वारा बनाये गये कृत्रिम, घट, पट आदिक अर्थोंसे विलक्षण हो रहे आकाश, सूर्य, आदिक पदार्थ तो कृत्रिम सिद्ध नहीं हैं जिससे कि व्यतिरेक द्वारा साध्यकी व्यावृत्ति हो जानेपर साधन की व्यावृत्ति हो रही स्वरूप निश्चित अन्यथानुपपत्ति इस हेतुकी सिद्ध नहीं होवे । अर्थात्हमारा हेतु अविनाभावी है ।
असिद्धताप्यस्य हेतोर्नेत्यावेदयति ।
हेतुके व्यभिचार दोषकी आशंकाका प्रत्याख्यान कर इस " कृत्रिमार्थविलक्षणत्व " हेतुका असिद्ध हेत्वाभासपना भी नहीं है इस बातका श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिम वार्त्तिकद्वारा विज्ञापन करे देते हैं ।
नासिद्धिर्मणिमुक्तादौ कृत्रिमेतरतोऽकृते ।
कृत्रिमत्वं न संभाव्यं जगत्स्कन्धस्य तादृशः ॥ ७१ ॥