Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्त
पांचवें, छठवें, कोई अन्य निकाय होते तो चौथा भी पांचत्रे, छठवेंका आदिभूत होसकता था, किन्तु सिद्धान्तमें पांचवें, छठे, आदि देव निकायका उपदेश नहीं किया गया है। अतः सूत्रकारने जितना कहा है विपर्यासों की निवृत्तिको करता हुआ उतना सूत्र सर्वाग सुन्दर है।
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आद्येषु पीतान्तलेश्या इत्यस्तु लघुत्वादिति चेन्न, विपर्ययप्रसंगात् । आदौ निकाये भवा आद्या देवास्तेषु पीतान्तलेश्या इति विपर्ययो यथान्यासं सुशकः परिहर्तु निःसंदेहार्थे चैवं वचनं ।
पुनः लघुताको ही जीवनप्राण स्वीकार कर रहा पण्डित कह रहा है कि लाघव गुण होनेसे “आद्येषु पीतान्तलेश्याः” आदिमें होने वालीं निकायोंमें पीतपर्यन्त लेश्या हैं, इतना ही छोटा सूत्र बनाया जाय । चौथी निकायका आद्यपदसे ग्रहण नहीं होसकनेको आप जैन स्त्रयं स्वीकार कर चुके हैं। प्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि सिद्धान्तसे विपरीत होरहे अर्थके प्राप्त होजानेका प्रसंग होजायेगा । आदिकी निकाय में होनेवाले देव आद्या कहे जायंगे, उन आदि निकायवाले दश प्रकार भवनवासी देवोंमें ही पीतान्तलेश्याका विधान होसकेगा । इस प्रकार विपरीत अर्थ की आपत्ति होगी । हां, जैसा सूत्रकारने सूत्र रचा है उस ढंग से विन्यासका अतिक्रमण नहीं किया जाय तो सम्पूर्ण विपर्यासों के प्रसंगका सुलभतया परिहार किया जासकता है और सबसे अच्छा समाधान यह है कि किसी प्रकारका सूत्रप्रमेयमें सन्देह नहीं रह जाय । स्पष्टरूपसे अभिप्रेत अर्थका निर्णय होजाय । अतः संदेहों के निरासके लिये “ आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्याः " इस प्रकार सूत्र पढा गया है। 1
अथ पीतान्तवचनं किमर्थं ? लेश्यावधारणार्थ, कृष्णा नीला कपोता पीता पद्मा शुक्ला लेश्येति पाठे हि पीतांतवचनात् कृष्णादीनां संप्रत्ययो भवतीति, पद्मा शुक्ला च निवर्तिता स्यात् । तेन त्रिष्वादितो निकायेषु देवानां कृष्णा नीला कपोता पीतेति चतस्रो लेश्या भवतीति ।
यहां अब कोई नवीन प्रकरणकी शंका उठाता है कि सूत्रकारने पीतपर्यन्त यह कथन किस लिये किया है? आचार्य समाधान करते हैं कि सम्भव रहीं लेश्याओं का नियम करनेके लिये पीतान्त पद कहा गया है । "किहा णीला काऊ तेऊ पम्मा य सुक्क लेस्साय, लेस्साणं णिद्देसा छत्र ह णियमेण " ( गोम्मटसार जीवकाण्ड ) कृष्णा, नीला, कपोता, पीता, पद्मा, शुक्ला ये छह लेश्यायें हैं, इस प्रकार पाठ होनेपर पीतपर्यन्त कथन करनेसे कृष्ण, नील, कापोत, पीत, इन जातिकी चार छेश्याओंका भले प्रकार सम्वेदन हो जाता है । पद्मा और शुक्ला लेश्याकी निवृत्ति कर दी जावेगी । अर्थात्–“ सम्भवव्यभिचाराभ्यां स्याद्विशेषणमर्थयत्, स्वपरात्मोपादाना पोहनव्यवस्था पाद्यं हि वस्तु वस्तुत्वं, स्वचतुष्टयापेक्षयास्तित्वं और परचतुष्टयापेक्षया नात्तित्वं ये दो स्वभाव ही वस्तुको मृत्युसे या सांकर्यसे बचाकर स्वांशोंमें सर्वदा जीवित बनाये रखते हैं । स्वपक्षमण्डन, परपक्षखण्डन जैसे वादी, प्रतिवादी, करते हैं, उसी प्रकार इस युद्धको सम्पूर्ण वस्तुयें या वस्तुके अखिल अंश भी ठाने रहते