Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
निकायोंके भी पीत पर्यन्त लेश्याका विधान समझा जायगा । जो कि जैन सिद्धान्त अनुसार इष्टसें विपरीत है । यदि वह पण्डित यों कहे कि आदितः शब्द जोडकर "आदितस्त्रिनिकायाः पीतान्तलेश्या " आदिसे लेकर तीन निकाय वाले देव पीतपर्यन्त चार लेश्याओंको धार रहे हैं, यों सूत्रद्वारा कथन किये जाने पर इष्टसे विपरीत अर्थके प्राप्त होजानेका प्रसंग नहीं आवेगा । आचार्य कहते हैं कि यों कहने पर भी तो यहां सूत्रका लम्बा, चौडा गौरव दोष अनिवार्य ही रहा । तुम्हारे "आदितस्त्रिनिकायाः पीतान्सलेश्याः " इसकी अपेक्षा तो सूत्रकारके " आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्याः " यों सूत्र बनाने में हीं लाघव गुण है, दृष्ट अर्थ भी सुघटित होजाता है । तिस कारण जैसा सूत्रकारने सूत्रका विन्यास किया है वही बहुत अच्छा बना रहो ।
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किमर्थमिहादित इति वचनं १ विपर्यासनिवृत्यर्थ, अंतेन्यथा वा त्रिष्विति विपर्यासस्यान्यथा निवारयितुमशक्तेः । येकनिवृत्त्यर्थस्तु त्रिष्विति वचनं । चतुर्निवृत्त्यर्थं कस्मान्न भवति ? आदित इति वचनात् चतुर्थस्यादित्वासंभवात्, अंत्यत्वात्पंचमादि निकायानुपदेशात् । कोई पुरुष प्रयत्न करता है कि यहां सूत्रमें आदितः यानी आदिसे प्रारम्भ कर या आदौ इति आदितः आदिमें यह तीन अक्षरवाला पद सूत्रकारने किसलिये कहा है ? श्री विद्यानन्द स्वामी इसका समाधान करते हैं कि विपर्यासकी निवृत्तिके लिये आदितः कहा गया है । अन्तमें तीन निकाय अथवा अन्य प्रकारोंसे मनुष्य, तिर्यच, देव इन तीनमें या भवनवासी, कल्पवासी, कल्पातीत इन तीनमें इत्यादि प्रकारसे प्राप्त हो रहे विपर्यासकी अन्यथा यानी आदित: इस पदका कथन किये बिना निवृत्ति नहीं की जा सकती है। अतः आदितः पद सार्थक है । आदिसे प्रारम्भ कर तीन निकायोंमें या आदिभूत तीन निकायोंमें पीतपर्यन्त लेश्या है । यह अर्थ सुलब्ध हुआ । तथा सूत्रमें त्रिषु इस प्रकार वचन तो दो निकाय और एक निकायकी निवृत्तिके लिये है । अर्थात्आदिकी दो या एक निकायोंमें पीतपर्यन्त लेश्या नहीं, किन्तु आदिकी तीनों निकायोंमें पीतपर्यन्त लेश्या है । यदि यहां कोई यों आक्षेप करै कि संख्येयपरक त्रिशब्द करके नियत तीन निकायोंका कथन करते हुये जैसे दो, एक, इन न्यून संख्याओंकी व्यावृत्ति कर ली जाती है, उसी प्रकार प्रकरण प्राप्त अधिक हो रही चार संख्याकी निवृत्तिके लिये किस कारणसे त्रिषु शद्वकी सफलता नहीं कहीं जाती है ? देखो " पंचेन्द्रियाणि " कह देनेसे एक, दो, तीन, सात, आठ, आदि इन्द्रियों का पांच पदसे व्यवच्छेद हो जाता है । कहते हैं कि आदितः इस प्रकार सूत्रकारने कथन किया है। यदि चारों निकाय ही अभीष्ट होते तो आदितः कहने की कोई आवश्यकता नहीं थी। आदितः कहनेपर चार निकायोंमेंसे कमसे कम एक निकायको तो छोडना चाहिये। तभी आदितः कथन सफल होसकता है। चौथे निकायको आदिपका असम्भव है। क्योंकि चौथा वैमानिक निकाय सम्पूर्ण चारों निकाय के अन्तमें पडा हुआ है। हां, यदि
चार, और छः
इसके उत्तर में आचार्य