Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
९८ इन्द्र या प्रतीन्द्र गिनाये गये हैं । किन्तु तीन निकायॊमें व्यक्तिभेदसे गिनती करनेपर ज्योतिष्क निकायमें असंख्याते इन्द्र और असंख्याते प्रतीन्द्र समझ लेने चाहिये । क्योंकि इस मध्यलोकमें असंख्याते चन्द्रमा और असंख्याते सूर्य हैं । चन्द्र विमानोंमें निवास कर रहे प्रधान देव इन्द्र हैं और सूर्यविमानोंके प्रधान अधिकारी देव प्रतीन्द्र हैं । सामानिक देवोंमेंसे प्रधान देव प्रतीन्द्र होता है । सभापति, उपसभापति या मंत्री, उपमंत्री, अथवा कलक्टर, डिप्टी कलक्टर, एवं तहसीलदार, नायव तहसीलदारके समान इन्द्र और प्रतीन्द्रका जोडा सुशोभित है।
आज्ञैश्वर्यवर्जितमायुर्वीर्यपरिवारभोगोपभोगादिस्थानमिदैःसमानं तत्र भवाः सामानिका इन्द्रस्थानाईत्वात् , समानस्य तदादेश्चेति ठक् । महत्तरपितृगुरूपाध्यायतुल्याः।
सम्पूर्ण अधिकृतोंके ऊपर आज्ञाप्रचार और उन सबके ऊपर ईश्वरता इन दो शक्तियोंको छोडकर शेष आयु, वीर्य, परिवार, भोगोपभोग, स्थान आदि व्यवस्थायें जिन देवोंकी इन्द्रोंके समान हैं उन देवोंके मण्डलको समान कहते हैं । उस समान नामक पिण्डमें होनेवाले देव सामानिक हैं। क्योंकि समय पडनेपर ये देव इन्द्रका स्थान प्राप्त करनेके लिये योग्य हैं, जैसे कि सभापतिकी अनुपस्थितिमें उपसभापति उस सभापति स्थानके योग्य समझा जाता है। समान शब्दसे " समानस्य तदादेश्च" इस तद्धित सम्बन्धी सूत्र करके ठक् प्रत्यय हो जाता है। ये सामानिक देवकुलमें सबसे बडे महत्तर या इन्द्रके माता, पिता गुरु, उपाध्याय, चाचा, ताऊ, आदिके सदृश हो रहे प्रतिष्ठित स्थानोंपर नियत होकर आदरणीय हैं । अर्थात्-जैसे आधुनिक, अत्रत्य, राजाओंके पिता, गुरु, पाठक, आदि पूज्यपुरुषोंका सद्भाव विशेष हर्षोत्पादक है तथैव इन्द्रका भी परिकर विद्यमान है । आवश्यक परिकरके विना सांसारिक सुख फीका रहता है । पुण्यके ठाठ तारतम्यको लिये हुये सर्वत्र एकसे हैं ।
त्रयस्त्रिंशति जाताः त्रायस्त्रिंशाः " दृष्टे नाम्नि च जाते च अण्डिद्वा विधीयत " इत्यभिधानमस्तीति अण्डिविधीयते, कथं वृत्तिर्भेदाभावात् । मंत्रिपुरोहितस्थानीया हि ये त्रयस्त्रिंशद्देवास्त एव त्रायस्त्रिंशा न तत्र जाताः केचिदन्ये संतीति दुरुपपादावृत्तिः । नैतत्सारं, संख्यासंख्येयभेदविवक्षायामाधाराधेयभेदोपपत्तेः, त्रयस्त्रिंशत्संख्या तदाधारः संख्येयास्तु यथोक्तास्तदाधेया इति सूपपादा वृत्तिः । अथवा त्रयस्त्रिंशद्देवा एव त्रायस्त्रिंशाः स्वार्थिकोपि इत" इति बहुत्वनिर्देशात् अंतिमादिवत् । .
तेतीस नामक मण्डलीमें सद्भूत हुये देव त्रायस्त्रिंश कहे जाते हैं " तत्र जातः " इस सूत्रद्वारा: प्रयत्रिंशत् शब्दसे अण् प्रत्यय कर लिया जाता है। दृष्ट अर्थमें और नाम अर्थमें तथा जात अर्थमें किया गया अण् प्रत्यय विकल्प करके डित् कर दिया जाता है, इस प्रकार शब्दशास्त्रका आमिधान है। इस कारण यह अण् प्रत्यय डित् किया गया " डित्वादि लोपः ” डित् होनेसे अत् इतनी टि का ,
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