Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके
__कोई यहां शंका करता है कि क्या कारण है ? जिससे फिर व्यन्तर और ज्योतिष्क निकायवाले देव विचारे त्रायस्त्रिंश और लोकपाल करके वर्जित हो रहे हैं, जिससे कि वे व्यन्तर या ज्योतिष्क देव इन इन्द्र, सामानिक, पारिषद, आत्मरक्ष, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य, किल्विषिक, आठ विकल्पवाले ही समझे जाय, इस प्रकार आशंका होनेपर श्रीविद्यानन्द स्वामी वार्त्तिक द्वारा इस वक्ष्यमाण समाधानको कहते हैं।
तत्रापि व्यंतरा वा ज्योतिष्कायोपवर्णिताः। त्रायस्त्रिंशैस्तथा लोकपालेस्तद्धत्वसंभवात् ॥ १॥
उन चारों निकायोंमें भी व्यंतर और ज्योतिष्क ये दो निकाय तिस प्रकार तेतीस देव और लोकपाल देवों करके रीते हो रहे आगम द्वारा कहे गये हैं। क्योंकि उन त्रायस्त्रिंश और लोकपालोंके उत्पादक हेतु विलक्षण जातीय पुण्यविशेषका दो निकायोंमें सम्भव नहीं है । अर्थात्-राजाओंको विशिष्ट जातिका पुण्य होनेपर ही निहोरे करते हुये, हितशासक, मंत्री, पुरोहित, आदिक पुरुष प्राप्त हो सकते हैं। वैसा पुण्य इन दो निकायोंमें नहीं है । तथा राजा बने विना ही पूर्ण राज्यपर अधिकार करना, यथायोग्य मनमानी चलाना, अधिकृत प्रजा वर्गसे अपनी प्रार्थना करवाना, आदि जातिका पुण्य भी किन्हीं किन्हीं जीवोंके होता है । वे ही मंत्री, पुरोहित आदिके स्थानापन्न हो सकते हैं । राजाकी हानि हो या लाभ हो इनको दोनों अवस्थाओंमें निश्चिन्तता है । सुकाल पडे, परचक्रके साथ युद्ध नहीं होय अच्छा ही है। किन्तु यदि दुष्काल पड जाय अथवा परचक्रस लाई छिड जाय इनको वैसी चिन्ता या आकुलता नहीं है, जैसी कि व्याकुलता राजाको सताती है । अतः दो निकायोंमें उक्त दो भेद नहीं माने गये हैं।
न हि व्यंतरज्योतिष्कनिकाययोस्त्रयस्त्रिंशलोकपालनामपुण्यकर्मविशेषस्त्रायस्त्रिंशलोकपालदेवविशेषकल्पनाहेतुरस्ति यतस्तयोस्त्रायस्त्रिंशलोकपालाश्च स्युरिति तद्वया॑स्ते देवाः तदतिशयविशेषस्य प्रतीतिहेतोनिकायांतरवत्तत्रासंभवात् ।
उक्त वार्तिकका व्याख्येय अर्थ यह है कि व्यंतर और ज्योतिष्क दो निकायके देव आत्माओंके त्रयस्त्रिंशत् और लोकपाल नामक विशेष पुण्य कर्मोका सद्भाव नहीं है, जो कि त्रायस्त्रिंश और लोकपाल जातिके विशेष देवोंकी वस्तुभूत कल्पनाका कारण माना गया है, जिससे कि उन मध्यवर्ती दो निकायोंमें त्रायस्त्रिंश और लोकपाल देव हो जावें। इस कारण वे व्यन्तर और ज्योतिष्कदेव उन त्रायस्त्रिंश
और लोकपालोंसे वर्जे गये हैं। क्योंकि त्रायस्त्रिंश और लोकपालकी प्रतीतियोंके कारण हो रहे उन अतिशय उक्त पुण्यविशेषोंका अन्य निकायोंके समान उन दो निकायोंमें असम्भव है । अर्थात्-अन्य दो निकाय भवनवासी और कल्पवासी देवोंके तो तादृश पुण्यविशेष हैं, जिससे कि उनमें त्रायस्त्रिंश और