Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
शब्दके साथ सम्भव जाता है। यद्यपि पाणिनीय व्याकरण अनुसार " कर्तृकरणे कृता बहुलं" इस सूत्रोक्त बहुल शब्दको सर्वोपाधिव्यभिचारार्थ नियत किया है। फिर भी "क्वचित् प्रवृत्तिः कचिदप्रवृत्तिः कचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव । विधेविधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति " बहुल शब्दके इस व्यापक अर्थका लक्ष्य कर " साधनं कृता बहुलं " इस सूत्र अनुकूल यहां वृत्ति कर लेनी चाहिये । अथवा इसमें कुछ अस्वरस होय तो " मयूरव्यंसकादयः " इस सूत्र अनुसार मयुरव्यंसक, आदि गणमें प्रविष्ट होनेसे “ कल्पोपन्नाः यहां तत्पुरुष वृत्ति कर लेना । जिन देवों के पर्यन्तमें कल्पोपपन्न देव हैं, वे देव . कल्पोपपन्न पर्यन्त हैं यह बहुव्रीहि वृत्ति कर दी जाती है । अवेयक आदिसे पहिले पहिलेके देव दश, आठ, पांच, बारह भेदवाले हैं, यह सूत्रका फलितार्थ हुआ । - अब स्वामीजी सूत्रकार पुनरपि उन निकायोंके विशेषोंकी प्रतिपत्ति कराने के लिये अगले सूत्रको रचते हैं। इंद्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीक
प्रकीर्णकाभियोग्यकिल्बिषिकाश्चैकशः ॥ ४॥
१ परम ऐश्वर्यशाली और स्वकीय मण्डलका सर्वाधिकारी प्रभु इन्द्र है २ इन्द्रके समान परिवार, आयु आदिको धारनेवाले सामानिक देव हैं ३ मंत्री, पुरोहित आदि तेतीस देवोंका मण्डल त्रायस्त्रिंश है ४ सभामें बैठने वाले पारिषद हैं ५ इन्द्रकी मानें रक्षा करने के लिये नियुक्त होरहे, रुद्र चेष्टावाले और परचक्रको मारनेके लिये ही मानूं उद्यत होरहे तथा इंद्रके पीछे खडे रहनेवाले ऐसे देव आत्मरक्ष हैं ६ स्वकीय अधिकृत लोकप्रान्तको पाल रहे गवर्नर, कमिश्नर, कलक्टर, कौतवाल, आदि सारिखे देव लोकपाल हैं ७ सेनामें नियुक्त हो रहे देव अनीक हैं ८ पुरनिवासी या देशनिवासी जनोंके समान प्रकीर्णक देवोंका मण्डल है ९ वाहन, यान, सेवकत्व आदि क्रिया करनेमें आज्ञा अनुसार झटिति अभिमुख होनेवाले दाससमान देव आभियोग्य हैं १० भंगी, चाण्डाल, कसाई, आदिके समान पापबहुलदेवोंको किल्विषिक कहते हैं । यो एक एक निकायके ये इन्द्र आदिक दश विकल्प हैं। ____अन्यदेवासाधारणाणिमादिगुणपरमैश्वर्ययोगादिदंतीतीद्राः। ___ इन दशोंका विशेष अर्थ इस प्रकार है कि अन्य देवोंकी अपेक्षा अधिक शक्तिशाली असाधारण हो रहे अणिमा, गरिमा, प्रभुता आदि गुणस्वरूप परम ईश्वरताके योगसे जो प्रभावशाली होकर स्व निकायमें सर्वोपरि विराज रहे हैं, इस कारण वे इन्द्र देव कहे जाते हैं । देवोंमें भवनवासीके चालीस १० व्यन्तरोंके बत्तीस ३२ कल्पवासियोंके चौबीस २४, ज्योतिषियोंमें सूर्य चन्द्र यों दो इस प्रकार