Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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साध्यविकल
हो जाते हैं । सर्वथा भिन्न
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कि जहां कहीं जब किसी विषय के प्रतिपादन करने की विवक्षा भगवान् श्री विद्यानन्द आचार्यके उपज बैठती है, निराकरणीय उस सदोष विषयका तभी वहां खण्डन कर मटियामेट कर देते हैं, और मण्डनीय निर्दोष प्रमेयको उन्नति के शिखरपर विराजमान कर देते हैं । ऐसी प्रतिभातत्परता प्रशं1 सनीय, प्रभावनीय या आदरणीय ही नहीं किन्तु पूजनीय भी है। इसके विना स्वमताप्री, एकान्तवादी पण्डितों के अभिमानका निराकरण और अनेकात्मक वस्तुके गूढ गर्भस्थित अतिशयोंका प्रकाश नहीं हो पाता है । ईश्वर के कर्तृवादका प्रत्याख्यान करते हुये श्री विद्यानन्द आचार्यने वैशेषिकों के हेतुओंका मुंह फेर दिया है । ईश्वरको सशरीर या अशरीर नित्यज्ञानवान् या अनित्यज्ञानवान् कैसा भी माना जाय वैशेषिकों के अभीष्ट कर्तृबादकी सिद्धि कथमपि नहीं हो पाती है। । अनवस्था, दृष्टान्त, व्यतिरेकाप्रसिद्धि, कदाचित्कार्यानुत्पत्ति ये दोष झटिति, उपस्थित हो रहे छट्ठे पदार्थ समवाय करके सर्वथा भिन्न माने गये ज्ञानका ईश्वर में वर्तना स्वीकार करनेवाले वैशेषिकों के यहां ईश्वर कथमपि " "" ज्ञ या ज्ञाता नहीं बन सकता है । लोष्ठ के समान अज्ञ ईश्वर या मुक्तात्मा के समान अशरीर ईश्वर भला जगत् को कैसे बना देगा ? यहां और भी अनेक सूक्ष्म विचार किये गये हैं । ईश्वर को सशरीर माननेवालों की विशेष रूपसे अवज्ञा की गयी है । जैता कोठी आदिमें सन्निवेशविशेष है वैसा जगत् में नहीं है । इस प्रकार किसी एकदेशीय विद्वानके द्वारा वैशेषिकों के ऊपर उठाये गये असिद्धत्व दोष को उचित नहीं बताकर सन्निवेशविशेषादि हेतुओं में व्यभिचार आदि दोष देना आवश्यक बताया गया है । इसके पश्चात् व्यतिरेककी असिद्धि बताकर ईश्वर और जगत् के कार्यकारणभाव का भंग कर दिया है । काल, आकाश, आदि भी यदि कूटस्थ नित्य या सर्वथा सर्वगत माने जांय तो ये भी किसी भी अर्थक्रियाको नहीं कर सकेंगे ! यह पक्की बात समझो । महेश्वरकी सिसृक्षां द्वारा जगत् की उत्पत्ति माननेपर बहुत अच्छा विवेचन किया है । चक्रक दोषों के प्रहारका ढंग निराला ही है । क्रम क्रम होने बाली अनित्य महेश्वर सिसृक्षाओं अथवा नित्य एक सिसृक्षा द्वारा जगत्की उत्पत्ति होनेमें अनेक दोष आते हैं । नित्य, व्यापक, होरहे ईश्वरज्ञान और ईश्वर ईच्छा स्वरूप कारणों का व्यतिरेक नहीं बननेसे व्यापकके अनुपलम्भ करके व्याप्य होरहे कार्यकारणभाव की असिद्धि दोषमें अरुचि दिखाते हुये अपर विद्वानों के मुखसे बाधित हेत्वाभास उठाना समुचित बताया गया है । यहांका विचार भी सादर अध्ययनीय है । अन्य एकदेशीय विद्वानों की सम्मति अनुसार वैशेषिकों के ऊपर उठाये गये असिद्ध, विरुद्ध, दोषों का अनुमोदन किया है । इस अवसर पर श्री विद्यानन्द आचार्य महाराजकी मित्रनीति अनुकरणीय है । वैशेषिकोंने कई I बार अपने पक्षको पुष्ट करने के लिये उद्योग किया, किन्तु असंख्यशून्य भी परस्पर गुणित होकर यदि एकके अंक को परास्त करना चाहें तो उनका दुःसाहस निरर्थक ही समझा जायगा | अस्तु । नित्य गुणी और उसके नित्य गुणको सर्वथा भिन्न ही कह रहे वैशेषिकों के पूर्वपक्ष पर स्याद्वादियोंने गुण, गुणीक कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध साथ दिया है । कार्यल, सन्निवेशविशिष्टत्व, आदि हेतुओं में वर
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गया
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