Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
डालता है, भले ही उस बोझके दबावको स्थूल बुद्धिवाला पुरुष नहीं समझ पावे, इसमें विचारी सूक्ष्म परिणति क्या चिकित्सा करे ? यह बात किसी विचारशाली विद्वान्से छिपी नहीं है । मुखमें खाद्य पदार्थके धर लेनेपर और चलानेपर चारों ओरसे लारके फुव्वारोंकी बौछार होती है । रीते क्रियारहित मुखमें उतनी लार नहीं टपक पाती है । हंसते, खेलते, हुये बालकको गोदमें लेकर वत्सल माता पिताके जो परिणाम हैं उनका अनुभव मुनि महाराज या वन्ध्य पुरुष अथवा वन्ध्या स्त्रीको नहीं हो पाता है । अतः आर्यपन या म्लेच्छपनका किसीको अनुभव नहीं होय यह उसके क्षयोपशमका दोष है। मनुष्योंमें तो वस्तुभूत आर्यत्व या म्लेच्छत्व व्यवस्थित हो ही रहा है। प्राचीन मार्गसे चली आ रहीं सम्प्रदायोंके प्रामाण्यका निर्णय भी कष्टसाध्य भले ही होय किन्तु असम्भव नहीं है । अनेक संप्रदायोंका निर्णय करना तो बुद्धिपर थोडा बल देनेपर सहजसाध्य हो जाता है । सांख्योंके प्रकृति तत्त्व या वेदान्तियोंके अद्वैतवाद आदिकी कल्पनायें भी नयविवक्षा अनुसार किसी वस्तुभित्तिपर अवलंबित हैं, निष्कारण नहीं हैं। क्वचित् प्रसिद्ध हो रहे धर्मका ही अन्यत्र आरोप किया जा सकता है । अतः गुणोंको कारण मान कर हुये आर्यपन और दोषोंको कारण मान कर हुये म्लेच्छपनकी व्यवस्थाको श्री विद्यानन्द आचार्यने भले प्रकार दर्शा दिया है । वैशेषिकोंकी मानी हुई नित्य, व्यापक, अमूर्त होरही ब्राह्मणत्व, चाण्डालत्व आदि जातियोंका युक्तियोंसे खण्डन किया है। वस्तुतः ऊर्ध्वतासामान्य या तिर्यक्सामान्यको जाति पदार्थ माननेमें महती शोभा है । अनेकान्तवाद तो सर्वत्र फैल रही है। इसके आगे भरत आदि क्षेत्रोंमें कर्मभूमि, भोगभूमिका विवेक करते हुये मनुष्य और तिर्यचोंकी जघन्य, उत्कृष्ट आयुके प्रतिपादक सूत्रोंका अनतिविस्तारसे विवरण किया है । असंख्याते द्वीप समुद्रोंमेंसे मध्यके ढाई द्वीपोंका ही और जीवतत्त्वका वर्णन करते करते बीचमें द्वीपसमुद्रोंका निरूपण क्यों किया ? इन आशंकाओंका प्रत्याख्यान कर उन द्वीपसमुद्रोंमें मनुष्यों के उत्पादक अभ्यन्तर, बहिरंग कारणोंका विचार किया गया है । जीवोंके आधारस्थानोंको समझानेके लिये अधोलोक, मध्यलोक, का निरूपण करना अत्यावश्यक है। इसके अनन्तर प्रकरण अनुसार श्री विद्यानन्द आचार्यने बडी विद्वत्ताके साथ सृष्टिकर्तृवादका निराकरण किया है। अन्य ग्रन्थोंमें नहीं देखनेमें आयीं ऐसी बहुतसी युक्तियों करके पौराणिक, वैशेषिक, नैयायिकोंको झकझोर डाला है। श्री विद्यानन्द आचार्य जिस विषयको पकड लेते हैं, उसको परिपूर्ण करके ही छोडते हैं ! तृतीय अध्यायके चालीस सूत्रोंके पूरे विवरणसे ग्रन्थ अपेक्षा कुछ ही थोडा और गम्भीर अर्थ अपेक्षा बहुत बडा कर्तृखण्डनका प्रकरण इस छोटेसे " तिर्यग्योनिजानां च " सूत्रके नीचे उसी प्रकार श्री विद्यानन्द आचार्यने जोड दिया है, जैसे राजवार्तिकमें " लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् ' सूत्रके विवरणमें अनेकान्तवादको हिलगा दिया है। गजघण्टको बलीबर्दपर लगा देनेसे भी एक विनोदपूर्ण शोभा हो जाती है । स्वतन्त्र उद्भट टीकाकारोंके बिषयमें हम सारिखे मन्दबुद्धि पुरुषोंको समालोचना करनेका कोई अधिकार नहीं है । केवल गुरुभक्तिवश आचार्योंकी स्तुति करते हुये मुखसे ये शब्द निकल पडते हैं।