Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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जानने के लिये आचार्य महाराजने भव्योंको आदेश दिया है । प्रबल परचक्रसे विजय प्राप्त कर स्वतःसिद्ध गायनकी उपजी हुई इच्छाके अनुसार विजेताको मालिनी छन्दः का प्रयोग विशेष हृदयग्राही शोभता है । तीसरे अध्यायके निरूपणको संक्षेपसे दिखाते हुये श्री विद्यानन्द स्वामीने शान्तिरस और प्रासादको बढानेवाले शिखरिणी छन्दःकरके सूत्रकार के उद्दिष्ट कर्त्तव्य की निर्विघ्न परिपूर्णताको दर्शा दिया है। चाहे चारों अनुयोगोंमेंसे किसी भी अनुयोगका विषय होय, श्री विद्यानन्द आचार्य उसको युक्तियों द्वारा साधे बिना छोडते नहीं हैं । लोकानुयोग अनुसार तत्त्वार्थसूत्र के करणानुयोग सम्बन्धी तृतीय अध्याय के प्रमेयको द्रव्यानुयोगसम्बन्धी चर्चा करके मढ देनेवाले श्री विद्यानंद आचार्यका प्रयास सर्वथा स्तुत्य है । सद्गुरुओंके द्वितवाक्य सर्वाङ्गीण पथ्य हैं । समन्तात् भद्रका आश्रय लेकर अकलंक पथपर मुमुक्षुओंको चलानेके लिये श्री विद्यानन्द आचार्य के गम्भीरग्रन्थ विद्या और आनन्दके विधायक होने ही चाहिये । यों तीसरे अध्यायके ऊपर किये गये विवरणको श्री विद्यानन्द स्वामी दो आन्हिकोंमें परिसमाप्त कर दिया है ।
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चेतः सम्भ्रमकारणत्वविधुरा नोर्वी खवद्भ्राम्यति । श्वभ्रम्लेच्छकुभोगभोगजगतीत्यादौ जनिं प्राणिनां ॥ स्वस्वादृष्टवशादकृत्रिममिमं लोकश्च वै श्रद्दधद्- | भव्यो ज्ञानचरित्रजुछिवकृते पुष्णातु सद्दर्शनम् ॥ १ ॥ इस प्रकार श्री तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार नामक महान्प्रन्थकी आगरामण्डलान्तर्गत चावलीग्रामनिवासी सहारनपुर प्रवासी न्यायाचार्योपाह्रित माणिकचन्द्रकृत
हिन्दी देशभाषामय " तत्त्वार्थचिन्तामणि " टीकामें तृतीयाध्याय परिपूर्ण हुआ ।
निर्बाध सम्बिदितसूक्तिसुधाः स्रवन्ती । संशीतिविभ्रमविमो हतमांसि हन्त्री ॥ जीवादितत्त्वकुमुदानि विबोधयन्ती । वाक्चन्द्रिका त्रिभुवनं धिनुताज्जिनस्य ॥
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