Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
नैयायिकोंके यहां युक्तियों यानी सद्धेतुओंसे नहीं अनुग्रह प्राप्त होचुका कोई भी आगम भला प्रमाण नहीं माना गया है अन्यथा अति प्रसंग होजायगा । अर्थात्-युक्तियोंके विना प्रमाणपना मान लेने पर चार्वाक, बौद्ध, ईसाई, मोहम्मदमतानुयायी, अद्वैतवादी, आदिकोंके आगम भी प्रमाण बन बैठेंगे । किन्तु उन ईश्वर साधक वाक्योंमें कोई अच्छी युक्ति व्यवस्थित नहीं होपाती है। प्रत्यक्ष, अनुमान, प्रमाणों करके स्पष्ट बाधा उपस्थित होरही है । विज्ञान ( साइन्स ) जब ईश्वरबादकी जडको सर्वथा काट चुका है ऐसी दशामें नैयायिकोंके आगमकी सहायक कोई युक्ति नहीं ठहर सकती है । इस कारण साधक प्रमाणोंके नहीं होनेसे सांख्योंकी त्रिगुणात्मक प्रकृतियां अद्वैतवादियोंके संवेदनाद्वैत पुरुषाद्वैत अथवा बौद्धोंके क्षणिकत्व आदिके समान ईश्वरकी भी सिद्धि नहीं होसकती है । कोई पूंछता है कि तिस कारण आठवीं वार्तिकसे प्रारम्भ कर अबतक क्या सिद्ध हुआ समझा जाय ? ऐसी जिज्ञासा होने पर श्री विद्यानन्द स्वामी निर्णीत सिद्धान्तको अग्रिम वार्तिक द्वारा कहते हैं ।
लोकोऽकृत्रिम इत्येतद्वचनं सत्यतां गतं । बाधकस्य प्रमाणस्य सर्वथा विनिवारणात् ॥ ६७॥
यह सम्पूर्ण लोक अकृत्रिम है इस प्रकार यह सिद्धान्त वचन सत्यताको प्राप्त होचुका है क्योंकि इसके बाधक प्रमाणोंका सभी प्रकारोंसे विशेषतया निवारण कर दिया गया है। अर्थात्त्रिलोकसारमें यह सत्य लिखा है कि " लोगो अकिट्टिमो खलु अणाइणिहणो सहावणिव्वत्तो। जीवाजीवेहिं फुडो सव्वागासवयवो णिचो” स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें कहा है कि “ सव्वायासमणतं तस्स य बहुमज्झि संठिओ लोओ। सो केण वि णेय कओ ण य धरिओ हरिहरादीहिं" " अण्णोण्णपवेसेण य दवाणं अत्थणं भवे लोओ । दवाणं णिच्चत्तो लोयस्स वि मुणह णिच्चत्तं " परिणाम सहावादो पाडिसमयं परिणमंति दन्वाणि । तेसिं परिणामादो लोयस्स वि मुणह परिणाम " मूलाचारके आठवें अध्यायमें लिखा है कि " लोओ अकिहिमो खलु अणाइणिहणो सहावणिप्पण्णो । जीवाजीवेहिं भरो णिचो तालरुक्ख संठाणो ” इत्यादिक सर्वज्ञोक्त आगम तो निर्वाध होनेसे सर्वांगरूपसे सत्यार्थ हैं।
लोकः खल्वकृत्रिमोऽनादिनिधनः परिणामतः सादिपर्यवसानश्चेति प्रवचनं यथात्रेदानीतनपुरुषापेक्षया वाधविवर्जितं तथा देशांतरकालांतरवर्तिपुरुषापेक्षयापि विशेषाभावात् ततः सत्यतां प्राप्तमिति सिद्धं सुनिर्णीतासंभवद्धाधकप्रमाणत्वादात्मादिप्रतिपादकप्रवचनवत् ।
- नियमसे यह लोक किसी द्वारा नहीं किया गया अकृत्रिम है । अनादिसे अनन्तकालतक स्थिर रहनेवाला है । हां, पर्यायोंकी अपेक्षा सादि, सान्त, भी है । इस प्रकारके शास्त्रवाक्य जैसे इस देशमें होनेवाले या इस कालमें होनेवाले पुरुषोंकी अपेक्षा करके बाधविवर्जित हैं उसी प्रकार देशान्तर