Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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सिद्धसाधन दोषकी आपत्ति होजाती है । कोई भी क्रिया किसी न किसी सामान्यकरणसे होती ही है किन्तु हम अतीन्द्रिय, इन्द्रियोंकी सिद्धि करनेके लिये तत्पर हैं । सामान्य करणको साध्य करनेपर तो प्रतिवादी कह सकता है कि प्रदीप, आलोक, उपनेत्र, ( चश्मा ) अंजन, आदि करणों करके रूपकी उपलब्धि होना हमारे यहां पहिलेसे ही सिद्ध है यों सिद्धसाधन दोष उठाया जा सकता है तथा अमूर्तत्व, अतीन्द्रियत्व, आदि धर्मोका आधार हो रहे विशेषाक्रान्त करणकरके अधिष्ठितपना भी हम नहीं साध रहे हैं जिससे कि विच्छेद या छेदन, भेदन, क्रिया आदि उदाहरणोंको साध्यरहितपनका प्रसंग हो जाय क्योंकि उदाहरण हो रहे उन छिदि, भिदि, आदि क्रियाओंका मूर्तत्व, इन्द्रियग्राह्यत्वं आदि धर्मोके आधार हो रहे दांतुआ, हेसिया, दरेंता आदि करणोंसे अधिष्ठित हो रहापन देखा जाता है । अर्थात्-हम वैशेषिक चक्षुः, रसना, प्राण, आदिक परोक्ष इन्द्रियोंकी सिद्धि करनेके लिये जो अनुमानप्रमाण कहते हैं उसमें दिये गये क्रियात्वहेतुका सामान्यविशेषाक्रान्त करणोंकरके अधिष्ठितपन साधा जाता है । रूपज्ञप्ति, रसज्ञप्ति, आदि क्रियायें तो अतीन्द्रिय मूर्त या अल्पपरिमाणवाले तथा शब्दसे इतर उद्भूत विशेष गुणोंका अनाश्रय हो रहीं चक्षु, रसना, आदि इन्द्रियनामक करणोंसे अधिष्ठित सध जायगी और सुखोत्पत्ति, अनुमिति आदि क्रियायें अमूर्तत्व, व्यापकद्रव्य समवेतत्व आदि धर्मोको धारनेवाले अदृष्ट, व्याप्तिज्ञान आदि करणोंसे अधिष्ठित हो रही सध जायगी तथा विशेष छिदि, भिदि, आदि क्रियायें तो मूर्त्तत्व, गुरुत्त्र, प्रत्यक्षयोग्यत्व आदि धर्मोके आश्रय हो रहे वसूला, चाकू, चक्की, आदि करणों द्वारा निष्पन्न हो रहीं सध जायगी । अतः साध्यकोटिमें सामान्य विशेष करणसे अधिष्ठितपना जैसे क्रियाओंमें क्रियात्व हेतुसे साधा जाता है उसी प्रकार करण आदि पक्षमें कर्तृसामान्य विशेषसे अधिष्ठितपनको करण आदि पन हेतु करके हम वैशेषिक साध रहे हैं।
यथा वा लौकिकपरीक्षकमसिद्धे धूमादग्न्यनुमाने सामान्यविशेषः साध्यते तथात्रापीत्यदूषणमेव, अन्यथा सर्वानुमानोच्छेदप्रसंगादिति मन्यमानस्यापि सोपि कर्तृसामान्यविशेषः प्रसिद्धाखिलकर्तृव्यक्तिव्यापी कश्चित् सिध्यति न पुनरिष्टविशेषव्यापी.। न ह्यासि द्धाग्नि सामान्यं केनचित्साध्यते देशकालविशेषावच्छिन्नाग्निव्यक्तिनिष्ठितस्यैव तस्य साधयितुं शक्यत्वादन्यथा नित्यसर्वगतामूर्ताग्निसाधनस्यापि प्रसंगात् । ...
वैशोषिक ही कहें जा रहे हैं कि अकेले सामान्य या अकेले विशेषको साध्यकोटिमें न धर कर सामान्य विशेष दोनोंको सामान्यरूपसे निविष्ट करनेका एक दृष्टान्त यह भी है कि जिस प्रकार धूमद्वास हुये अग्निके लौकिक या परीक्षक पुरुषोंके यहां प्रसिद्ध हो रहे अनुमानमें सामान्यविशेषको ही साधा जाता है । तिसी प्रकार हमारे " करणादीनि कधिष्ठितवृत्तीनि करणादित्वात् ” इस अनुमानमें भी यों सामान्य विशेषको साध्य करनेपर कोई भी दूषण नहीं आता है। अन्यथा सभी अनुमानोंके उच्छेदका प्रसंग हो जायगा । अर्थात्-चन्हिमान् धूमात् इस प्रसिद्ध अनुमानमें यदि सामान्य