Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
निर्माण की गयीं कह देवे, चूल्हेकी आगको रसोइयाकी बनायी हुई कह देवे, नलके जलको पुरुषके प्रयत्नसे उपजा हुआ मान ले, बीजनाकी वायुको बुद्धिमान् जीव करके बनाई गई अभीष्ट कर ले, खेतकी मिट्टीको किसानके व्यापारसे बनी हुई स्वीकार कर लेवे, किन्तु वह बुद्धिमान् वनकी वनस्पतियों या खानों, नदी जलों, दावानल, आंधी, सूर्य, आदि पदार्थोंको बुद्धिमान् करके बनाये हुये नहीं मान सकता है । यदि कोई साहसी अन्ध श्रद्धावान् उन स्थावर आदिको भी शरीर, पर्वत, पृथिवी, आदिके समान पक्षकोटिमें डालकर स्थावर, सूर्य, आदिका निमित्तकारण ईश्वरको मान बैठे तब तो यों कोई भी हेतु व्यभिचारी नहीं हो सकेगा। "धूमवान् वन्हे:” यहां अंगार या अयोगोलक इन व्यभिचार स्थलोंको पक्षकोटिमें गिना जा सकता है । जलते हुये अंगार या लोहगोला अथवा कोयलेको घाममें रखकर कुछ दूरसे देखो दूसरे प्रकारका विलक्षण धूआं निकलता हुआ दीखता है । यों कहनेवालेका कोई मुख टेडा नहीं हो जाता है । जिस पुरुष या स्त्रीके निमित्तसे किसी स्त्री या पुरुषको व्यभिचार दोष लगनेका प्रसंग आया है, निर्लज्ज पुरुष उन निकृष्ट स्त्रीपुरुषोंको भी स्वस्त्रीपक्ष या खपतिपक्षमें डाल लेवें, एतावता अपयश, राजदण्ड, भर्त्सना, पापसंचय, नरकगमनसे छुटकारा नहीं मिल सकता है। अतः नैयायिकोंके हेतुमें स्थावर आदिकोंकरके भी व्यभिचार दोष लग गया, कोई खटका नहीं है।
कथं पुनः स्थावरादीनामबुद्धिमत्कारणकत्वस्थितियतस्तैरनेकांतिकत्वं कार्यत्वादिहेतूनामुद्भाव्यत इत्यावेदयति ।
कोई जिज्ञासु प्रश्न करता है कि उन स्थावर आदि पदार्थोंका निमित्तकारण कोई विशेष बुद्धिमान् पुरुष व्यवस्थित नहीं है, यह आपने फिर किस प्रकार निर्णीत कर लिया है ? जिससे कि कार्यत्व, अचेतनोपादानत्व आदि हेतुओंका उन स्थावर आदिकों करके व्यभिचार दोष उठाया जा रहा है ? बताओ । ऐसी निर्णेतुमिच्छा होनेपर ग्रन्थकार बडी प्रसन्नताके साथ उस जिज्ञासुके सन्मुख निवेदन कर देते हैं।
दृष्टमित्यादिहेतूनामन्वयव्यतिरेकतः। दृश्यते स्थावरादीनां सर्वगत्वेन बेधसः ॥ ४० ॥ न देशे व्यतिरेकोस्ति क्षितावस्य सदा स्थितेः। सर्वगस्यान्वयस्त्वेको न तज्जन्यत्वसाधनः ॥ ४१ ॥
साधारण प्राणियोंके भी दृष्टिगोचर हो रहे पृथिवी, जल, खेत, बीज, ऋतु, योग्यता, सहकारीसमवधान, आदि हेतुओंके अन्वय, व्यतिरेकसे स्थावर आदिकोंका भाव या अभाव देखा जा रहा है। ईश्वर के साथ इनका अन्वय, व्यतिरेक, नहीं देखा जाता है । क्योंकि तुम वैशेषिकोंका गढा गया जगद्विधाता ईश्वर सर्वव्यापक माना गया है । इस कारण किसी भी देशमें उसका व्यतिरंक नहीं