Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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नहीं हैं । किन्तु अनित्य द्रव्य, अनित्य गुण और सम्पूर्ण क्रियायें हो विवादमें प्राप्त हो रही पक्ष मानी गयीं हैं और जिस समय इन अशाश्वत द्रव्य गुण, क्रियाओंका निमित्तकारण एक बुद्धिमान साध्यरूपसे व्यवस्थित किया गया है उस समय प्रयुक्त किया गया कार्यत्वहेतु तिस प्रकार हमको निज अभीष्ट होरहे साध्यसे विपरीतको कथमपि नहीं साध पायेगा जोकि आप जैनोंने त्रेपनवीं वार्तिको विरुद्धपनेका कटाक्ष किया था यों कार्यत्व हेतु हमारे इष्ट साध्यको ही बढिया साधेगा । तथा वह कार्यत्वहेतु यदि सर्वथा भी विवक्षाप्राप्त कर लिया जायगा तो भी उन सर्वथा जन्य द्रव्य, गुण, क्रियाओंमें असिद्ध हेत्वाभास नहीं होसकेगा, अशाश्वत माने गये द्रव्य, गुण, क्रियाओंमें, सर्वथा कार्यत्वहेतु निर्द्वन्द्व ठहर जाता है । अतः " सर्वथा यदि कार्यत्वं" इस वार्तिकद्वारा असिद्ध दोष उठाना जैनोंका उचित कार्य नहीं है । यहांतक कोई एक कर्तृवादी कर रहे हैं ग्रन्थकार कहते हैं कि उनका वह कथन संगतिसे रहित हैं। क्योंकि वैशेषिकोंके यहां माने गये कार्य और कारणके एकान्तरूपसे भेदकी प्रमाणोंसे सिद्धि नहीं हो सकता है जब कि कार्य और कारणके कथंचित् एकपनकी निर्वाध प्रमाणों द्वारा प्रतिपत्ति होरही है । ऐसी दशामें परमाणु, आत्मा, आकाश, आदि कारण नित्य हैं तो कथंचित् आभिन्न होरहे उनके कार्य घट, पट, ज्ञान, इच्छा, शब्द, आदि भी कथंचित् नित्य होजायंगे । अतः पक्षमें सर्वथा कार्यत्वके नहीं ठहरनेसे कार्यत्व हेतु स्वरूपासिद्ध हो ही गया, कथंचित् नित्य पदार्थोंमें हेतुओंते सर्वथा जन्यपना अनुमानान्तरसे बाधित भी है । अतः तुम्हारा कार्यत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट हुआ, ( अपील करनेपर उनकी सजा बढ गयी )।
यदप्याहुः परे पृथिव्यादिकार्यद्रव्यमशाश्वतं धर्मि तस्य विवादाध्यासितत्वाम पुनराकाशं अभिलापात्तमेवं शाश्वतं द्रव्यं, नाप्यात्मा सुखाद्यनुमेयो नित्यो, न कालः परत्वापरत्वाघनुमेयो दिग्वा, नापि मनः सकृविज्ञानानुत्पत्त्यानुमेयं, नापि पृथिव्यादिपरमाणवः कार्यद्रव्यानुमेयास्तेषामविवादापनत्वात् । तत एव न सामान्यमनुवृत्तिप्रत्ययानुमेयं, नापि समवाय इहेदमिति प्रत्ययानुमेयो, नात्यविशेषा नित्यद्रव्यवृत्तयोऽत्यंतव्यावृत्तिबुद्धिहेतवः ।।
___ उक्त वार्तिकोंकी व्याख्या इस प्रकार है कि दूसरे कर्तृवादी पण्डित जो भी यह कह रहे हैं कि पृथिवी, जल, तेज, वायु इस प्रकार चार जातिके अनित्य कार्यद्रव्योंको हम धर्मी बनाते हैं । क्योंकि उन अनित्य द्रव्योंका किसी बुद्धिमान् निमित्तद्वारा बनाया जाना ही विवादमें पड़ा हुआ है । किन्तु फिर शाश्वत नित्य पांच द्रव्य तो कार्यरूपसे विवादग्रस्त नहीं है। शब्दका समवायीकारण होकर गृहीत हो रहा नित्य द्रव्य आकाश इस प्रकार पक्ष नहीं किया गया है । अपना आत्मा स्व संवेद्य और दूसरोका सुख, दुःख, आदिकरके अनुमान प्रमाणद्वारा जानने योग्य नित्य आत्माद्रव्य भी बुद्धिमद्धेतुकपनाकरके विवादापन्न नहीं है । जेठापन, छोटापन, इन कालिक परत्व, अपरत्व आदिकरके अनुमान करने योग्य परोक्षकालद्रव्य भी नित्य है । अतः कर्तृसाधक
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