Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
अन्य विद्वान् वैशेषिकों करके इस प्रकरणमें तीनों जगतों के हेतु होरहे सर्व व्यापक किसी बुद्धिमान् को साध्य करने पर दिये गये वे कार्यत्व आदि हेतु तो विशेष विरुद्ध हेत्वाभास हैं, इस प्रकार ताध्यसे विपरीत कथंचित् बुद्धेमान्को निमित्तकारणपनकी सिद्धि होजाने की बड़े बलसे पुकार करनेवाले ये हेतु अपने आपहीसे नहीं दूर भग जाते हैं । अर्थात् व्यापक, सर्वज्ञ, बुद्धिमान्को निमित्तपना साधने में प्रयुक्त किये गये कार्यत्व आदि हेतु जब कथंचित् बुद्धिमान् को जगत्का कारणपन साध रहे हैं । तो ऐसी दशामें उस वैशेषिकके सिद्धान्तको गालिप्रदान कर रहे ये हेतु यों ही स्वतः नहीं भग जायंगे किन्तु वैशेषिकों के विरुद्ध होकर जगत् में 'कथंचित् बुद्धिमान् द्वारा किये गये पनका ढिंढोरा पिटते रहेंगे । जैसे कोई सन्मार्ग प्रचारक, उद्वेगी, भला, मनुष्य यदि किसी असत् पक्षवाले पुरुषके साथ फंस जाय पुनः वह भला मानुष अपने साथ के दुर्गुणों को देखता है तो उससे विरुद्ध होकर कटु शब्दों द्वारा उसकी भर्त्सना करता है यों ही चुपके नहीं भग जाता है उसी प्रकार कथंचित् कार्य हेतु उन वैशेषिक या पौराणिककी अच्छी प्रतरणा करता हुआ उनके अभीष्ट साध्यसे विपरीत पक्षको साधनेके लिये कमर कस लेता है ।
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यदि सर्वथा कार्यत्वमचेतनोपादानत्वं, सन्निवेशविशिष्टत्वं, स्थित्वा प्रवृत्त्यादि वा हेतुस्तदा न सिद्धस्तन्वादेरपि द्रव्यार्थादेशादकार्यत्वात् । कार्यत्वं तावदसिद्धं तथा तस्य नित्यत्वव्यवस्थितः सर्वथा कस्यचिदनित्यत्वेऽर्थक्रियाविरोधात् । तत एव सर्वस्यानुपादानत्वादचेतनोपादानत्वं न सिद्धं ज्ञानादेः पक्षीकृतस्यापि चेतनोपादानत्वात् तदभ्युपगमो नापि भागासिद्धं वनस्पतिचैतन्ये स्वापवत् । सन्निवेशविशिष्टत्वमपि न द्रव्यस्य पर्यायविषयत्वात्तस्येत्यसिद्धं ज्ञानादौ स्वयमनभ्युपगमाच्च भागासिद्धं तद्वदेव स्थित्वा प्रवृत्तिरपि न द्रव्यार्थादेशात् कस्यचित्तथा सर्वस्य नित्यप्रवृत्तत्वादिति तदसिद्धिः । अर्थक्रियाकारित्वं पुनर्द्रव्यादर्थान्तरभूतस्य पर्यायस्यैकांतेन तद्गुरुपपादमित्यसिद्धमेव ।
स्याद्वादियों के पक्षका आदर कर रहे कोई अन्य विद्वान् उन कर्तृवादियोंसे पूंछते हैं कि शरीर, पृथिवी, द्वीप, पर्वत आदिमें ईश्वरकृतपना साधने के लिये प्रयुक्त किये गये कार्यत्व, अचेतनोपादानत्य, सन्नित्रेशविशिष्टत्व, स्थित्वाप्रवृत्ति, अर्थक्रियाकारित्व आदिक हेतु यदि सर्वथा हैं । अर्थात् — पृथिवी, शरीर, आदिमें सभी प्रकारोंसे कार्यपना या सभी प्रकारोंसे अचेतन उपादान कारणोंसे जन्यपना आदि हैं तब तो तुम्हारे हेतु सिद्ध नहीं हैं असिद्ध हेत्वाभास हैं क्योंकि द्रव्यार्थिक-नय-द्वारा निरूपण करनेसे तनु, द्वीप, पर्वत, आदिक भी कार्य नहीं हैं सम्पूर्ण द्रव्य अनादि अनन्त हैं शरीर आदि पर्यायें भले ही अनित्य होय किन्तु शरीर आदिका पुद्गल द्रव्य नित्य है । अतः सभी प्रकारोंसे यानी द्रव्यरूपसे भी कार्यपना मानना तो तनु आदि में असिद्ध है तिस प्रकारसे तो उन तनु आदिकों को नित्यपना व्यवस्थित हो रहा है। यदि सभी प्रकारोंसे किसीको भी अनित्य माना जायगा तो अर्थक्रिया