Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
महीं हो सकना साध. दिया जाता है । यहां इतना और समझ लेना चाहिये कि ज्ञेय. और ज्ञानवान्में अन्तर है । " जानाति इति ज्ञः " जो आत्मा निज ज्ञानपरिणतिके साथ तदात्मक हो रहा सन्ता जानता है, वह ज्ञ है । वैशेषिक और नैयायिक विद्वान् तो गुण और गुणीका भेद मानते हैं । उनके यहां " ज्ञ" शब्द ही अलीक है । वे दण्डवान् पुरुषः के समान ज्ञानवान् आत्मा यों कह सकते हैं । आत्माका गांठका निजस्वरूप ज्ञान नहीं है । ऐसी दशामें केवल ईश्वर या मुक्त आत्मायें ही नहीं, किन्तु सभी जीवोंकी आत्मायें अज्ञ ठहरती हैं । जो मूल स्वरूपसे अज्ञ है आकाशके समान वह ज्ञानके योगसे भी " ज्ञ" नहीं हो सकता है। अतः आचार्योकी ओरसे कहा गया अझपना हेतु साभिप्राय है। ___एतेनानित्यज्ञानत्वेपीश्वरस्य ज्ञात्वा जगन्निमित्तत्वसिद्धन मुक्तात्मवत्तदनिमित्तत्वमित्येतन्निरस्तमशरीरस्य, तन्मते सर्वथाप्यज्ञत्वात् । तस्य ज्ञत्वे मुक्तात्मनोपि झत्वप्रसंगादिशेषाभावात् ।
इस उक्त कथन करके वैशेषिकोंके इस कथनका भी निराकरण किया जा चुका समझ लो कि अनित्य ज्ञानसे युक्त हो रहे भी ईश्वरको कारणों का परिज्ञान कर जगत्का निमित्तपना सिद्ध हो जाता है। इस कारण मुक्त आत्माके समान ईश्वरको उस जगत्का अनिमित्तपना नहीं है। अर्थात्-मुक्त आत्मा तो सर्वथा ज्ञानसे रहित है । किन्तु ईश्वर अनित्यज्ञानसे युक्त है । अतः जगत्का निमित्तकारण हो सकता है । इस वैशेषिकोंके मतका निराकरण यों हो जाता है कि उनके मतमें शरीररहित आत्माको सभी प्रकारोंसे अज्ञ माना गया है। यदि अशरीर भी उस ईश्वरको ज्ञ माना जायगा तब तो मुक्त आत्माको ज्ञ-पनेका प्रसंग होगा। क्योंकि ईश्वर और मुक्त आत्मामें विशेषाधायक अन्तरका अभाव है।
सदेहबुद्धिमद्धेतुर्दृष्टांतोपि घटः कथं । निर्देहबुद्धिमद्धेतौ साध्ये जगति युज्यते ॥ १६ ॥
जगत्में निमित्तकारण माने गये देहरहित बुद्धिमान्को साध्य करते संते भला देहसहित बुद्धिमान् , कुलालको अपना हेतु मानकर उपजा घट दृष्टान्त भी किस प्रकारसे युक्त हो सकता है ? अर्थात्-साध्यकोटिमें देहरहित बुद्धिमान् है और घटदृष्टान्तकी सामर्थ्यसे देहसहित बुद्धिमान् निमित्तकारण सध जायगा । ऐसी दशामें हेतुके विरुद्धहेत्वाभास हो जानेकी सम्भावना है।
धीमद्धेतुत्वसामान्यं साध्यं चेनिर्विशेषकं । नानाधीमनिमित्तत्वसिद्धेः स्यात् सिद्धसाधनम् ॥ १७ ॥ नानात्मपरिणामाख्यभावकर्मनिमित्चकं । सिद्धं हीदं जगचस्य तद्भोग्यत्वप्रसिद्धितः ॥ १८ ॥