Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
तथान्येपि किमात्मानः स्वमूर्त्यत्पत्तिहेतवः । स्वयं न स्युरितीशस्य व सिध्द्येत्सर्वहेतुता ॥ २७ ॥
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पुराण या स्मृतियोंको माननेवाले पौराणिक या स्मार्त सम्प्रदायवालोंका यह मत है कि या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री, ये द्वे कालं विधत्तः श्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वं । यामाहुः सर्वबीजप्रकृतिरिति मया प्राणिनः प्राणवन्तः । प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरबतु बस्ताभिरष्टाभिरशिः ॥ १ ॥ ( शकुन्तला नाटक ) । महेशकी १ जल २ अग्नि ३ होता ४ सूर्य ५ चन्द्रमा ६ आकाश ७ पृथ्वी ८ वायु ये आठ मूर्तियां (शरीर ) हैं । विशेषरूपसे विष्णु सम्प्रदायवाले विष्णु भगवान् के दश या चौवीस अवतारोंको मानते हैं । शैव आम्नायवालोंने भी महादेव के I कतिपय शरीरधारी अवतार इष्ट किये हैं। यहां प्रकरणमें यह कहना है कि " भूतानि यज्वा सूर्याचन्द्रमसौ च महेशकी पृथिवी आदि आठ मूर्तियां (शरीर ) हैं । उन मूर्तियोंके उत्पन्न करनेमें वही महेश निमित्तकारण है । आचार्य कहते हैं कि आठ मूर्तियों या वराह, काल आदि अपने शररोिंको बनाने में यदि व्यभिचारदोष नहीं आवेगा, तब समान अन्य भी आत्मायें स्वयं अपने अपने शरीरोंकी उत्पत्तिके कारण क्यों नहीं हो जावेंगीं ? ऐसी दशामें भला ईश्वरको सम्पूर्ण जगत्का निमित्तकारणपना कहां सिद्ध हो सका ? अर्थात् — ईश्व अपने शरीरको बना लेता है, और अन्य प्राणी अपने अपने शरीरोंको रच लेते हैं । बिचारा अकेल ईश्वर सम्पूर्ण जगत्का कर्ता नहीं है 1
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आदि या महा
महेश या विष्णुके
कुर्वन क्षित्यादिमूर्तींश्च स्वमूर्ति तत्प्रयोगतः । मृत्यतराणि कुर्वीत यदि वानादिभिर्यतः ॥ २८ ॥ गत्वा सुदूरमप्येवं यदि मूर्तीने काश्चन । कुर्यात्ताभिस्तदा हेतोरनैकांतिकता न किं ॥ २९॥
वैशेषिक कहते हैं कि जिस प्रयोगसे वह ईश्वर पृथ्वी, जल आदि अपनी आठ मूर्तिर्यौको बना रहा है, उसी प्रयोगसे अनादि धारावाले पृथिवी आदि भूतोंकरके अपने शरीरको और दूसरे प्राणियोंके शरीरोंको कर देवेगा । आचार्य कहते हैं कि यदि तुम यों कहोगे तब उन मूर्तियोंको - बनाने के लिये पहिले क्षिति आदिको बनाया होगा और उन क्षिति आदि मूर्तियोंके लिये उससे भी पहिली क्षिति आदि मूर्तियोंको बनाना पडा होगा । यों अनवस्था आती है। इसके निवारणार्थ बहुत दूर भी जाकर यदि किन्ही क्षिति आदि मूर्तियों को ईश्वरकृत नहीं माना जावेगा तब तो उन्हीं मूर्तियों करके तुम्हारे हेतुका व्यभिचारीपना क्यों नहीं बन बैठेगा ? अर्थात् — अनवस्थाको दूर करनेके लिये