Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्त
बहुतकाल पहिलेकी जिन मूर्तियों को आपने ईश्वरकरके बनाई हुई नहीं माना है, उनमें सन्निवेश यह तो रह गया और बुद्धिमान् कारणसे जन्य होना यह साध्य नहीं रहा । अतः व्यभिचारी हुआ । अनादिमूर्तिभिस्तस्य संबंध इति चेन्मतं ।
किं इत्यनादिता तासां सन्निवेशविशिष्टतां ॥ ३० ॥ न चेचाभिर्महेशेन कृताभिर्व्यभिचारिता । साधनस्य कृताभिर्वा तेनैता मनवस्थितिं ॥ ३१ ॥ केवलं मुखमस्तीति यत्किंचिदभिधीयते ।
मिथ्योत्तराणामानंत्यात्प्रेक्षावत्ता नु तत्र का ॥ ३२ ॥
इस व्यभिचारका निवारण करनेके लिये अनादिकालसे बनीं चली आरहीं क्षिति, आदि मूर्तियोके साथ वह ईश्वरका संबन्ध यदि इष्ट किया जायगा, यों मंतव्य होनेपर तो आचार्य पूछते हैं कि उन मूर्तियोंकी अनादिता क्या रचनाकी विशिष्टता ( हेतु) को मार डालती है ? बताओ । यदि मूर्तियों में सन्निवेशविशेष है तो तुम्हारे ऊपर हेतुका व्यभिचार दोष तदवस्थ है । जब कि उन मूर्ति - योंका अनादिपन सन्निवेशविशेषका विघात नहीं कर सकता है और अनादिकालीन पृथिवी आद मूर्तियां महेशकर के नहीं की जाचुकीं हैं तो तुम्हारे " सन्निवेशविशिष्टत्व " साधनका उन मूर्तियों करके व्यभिचार हुआ। यदि उन अनादि मूर्तियों को तिस ईश्वर करके किया हुआ माना जायगा तो व्यभिचारदोष दूर होजायगा किंतु उन मूर्तियों को बनाने के लिये पुनः मूर्तियां बनाई गई होंगी और उनके लिये भी पूर्व मूर्तियां बनाई गई होंगी, यों मूर्तियोंकी धारा करके हुये इस अनवस्थादोष को तुम दूर नहीं कर सकते हो। “ मुखमस्तीति वक्तव्यं ” यदि फोकटका मुख है तो कुछ न कुछ बोलते रहना चाहिये, इस लोकनीतिके अनुसार जो कुछ भी अन्ट, सन्ट, तुम कहे जाते हो । जगत् में मिथ्या उत्तर अनन्त हैं । हम ईश्वरके कर्तृत्वका निराकरण करनेके लिये जितने समुचित आक्षेप करते हैं, तुम उनके अनन्त मिथ्या उत्तर दे देते हो। यह तो वही एक ग्रामीणपुरुषका विजय जैसा हुआ कि कोई गमार यों कहता फिरता था कि मैं काशी गया और सब पण्डितों को हरा आया। उन्होंने सैकडों बातें कहीं उनकी एक भी नहीं मानी । कुछ न कुछ बके ही चला गया । देखो, ऐसी दशा में वहां प्रेक्षावान्पना भला कहां रहा ? युक्तिरहित बकनेवाले पुरुष हिताहितका विचार करनेवाले नहीं माने जाते हैं । ऐसे पुरुषों न्यायपूर्वक वाद विवाद करनेमें अधिकार नहीं है ।
ततः सूक्तमेतत् सदेहेश्वरवादिनां सन्निवेशविशिष्टत्वादिति हेतुरीश्वर देहेन व्यभिचारीति ।