Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
न च द्वीपसमुद्रादिविशेषाणां प्ररूपणं । निःप्रयोजनमाशंक्यं मनुष्याधारनिश्वयात् ॥ ४ ॥
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द्वीप समुद्र, नदी, हद, आदि विशेषोंका प्ररूपण करना प्रयोजनरहित है, यह आशंका नहीं करनी चाहिये। क्योंकि इससे मनुष्यों के आधारभूत स्थलों का निर्णय हो जाता है । सम्पूर्ण संसारियोंमें मनुष्योंकी गणना उच्चकोटिके जीवोंमें है । श्री अरहन्तपरमेष्ठी या उत्कृष्ट श्रोता, वक्ता, अथवा वादी, प्रतिवादी, ये सब मनुष्य ही तो हैं । अतः जीवोंका वर्णन करते समय मनुष्य और उनके अधिकरण हो रहे ढाई द्वीप और दो समुद्रों का निरूपण करना व्यर्थ नहीं है । ज्ञा ध्यानके उपयोगी प्रकरणों को अवश्य सुनना, समझना चाहिये । यही ज्ञान विचार आक्रान्त होकर ध्यान 1 बन बैठता है और स्वसंवेद्य सुखका उत्पादक हो रहा संवर, निर्जराका संपादक हो जाती है ।
कानि पुनर्निमित्तानि द्वीपसमुद्रविशेषेषूत्पद्यमानानां मनुष्याणामित्याह ।
यहां किसीकी जिज्ञासा है कि उन ढाई द्वीपविशेष या लवणोद, कालोद, दो समुद्रविशेषों में उपज रहे मनुष्यों के फिर निमित्तकारण कौन हैं ? अर्थात् — किन कारणोंसे मनुष्य इन ढाई द्वीपोंमें उपज जाते हैं ? अन्यत्र क्यों नहीं उपजते हैं ? इसके उत्तर में श्री विद्यानन्द स्वामी अप्रिमवार्त्तिकको कहते हैं ।
नानाक्षेत्रविपाकीनि कर्माण्युत्पत्तिहेतवः ।
संत्येव तद्विशेषेषु पुद्गलादिविपाकिवत् ॥ ५ ॥
जैसे कि पुद्गल या जीव आदिमें विपाकको करने वाले पुद्गलविपाकी कर्म, जीवविपाकी कर्म, और भवविपाकी कर्म हैं, उसी प्रकार उन विशेषद्वीप या समुद्रविशेषोंमें उत्पत्ति होजाने के कारण अनेक क्षेत्रविपाकी कर्म भी संसारी आत्मा के साथ बंधनबद्ध होरहे हैं ।
यथा पुद्गलेषु शरीरादिलक्षणेषु विपचनशीलानि पुद्गलविपाकीनि कर्माणि शरीरनामादीनि यथा च भवविपाकीनि नरकायुरादीनि, जीवविपाकीनि च सद्वेद्यादीनि तथा तत्रोत्पत्तौ मनुष्याणामन्येषां च प्राणिनां हेतवः संति तद्वनानाक्षेत्रेषु विपचनशीलानि क्षेत्रविपाकन्यपि कर्माणि संति तत्र तत्रोत्पत्तौ तेषां हेतव इति तदाधारविशेषाः सर्वे निरूपणीया एव ।
जिस प्रकार शरीर, उपांग, हड्डी, रक्त, आदि स्वरूप पुद्गलों में विपाक होनेकी टेवको रखनेवाले शरीर नामकर्म, आदिक पुद्गलविपाकी ६२ बासठ कर्म हैं । " देहादी फासता पण्णासा णिमिणतात्र
जुगलं च, थिर सुह पत्तेय दुर्गं अगुरुतियं पगलविवाई " । और जिस प्रकार नरक आयु, तिर्यगायु, आदि चार कर्मप्रकृतियां भवविपाकी हैं और तद्वेदनीय आदिक अठत्तर कर्मप्रकृतियां जीवविपाकी