Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
कल्पना करना उचित नहीं है । साथमें स्वाभाविक शरीर कल्पना करना भी युक्त नहीं है । इसी बात को श्री विद्यानन्द आचार्य अग्रिम वार्तिक द्वारा कह रहे हैं ।
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स्वाभाविकं पुनर्गात्रं शुद्धं ज्ञानं वदंति ये ।
कुतस्तेषां विभागः स्यात्तच्छरीरशरीरिणोः ॥ ७ ॥
जो बौद्ध विद्वान् फिर जीवके शुद्ध ज्ञानको स्वाभाविक शरीर कह रहे हैं, उन बौद्धोंके यहां शरीर और शरीर वाले जीवका विभाग भला कैसे होगा ? बताओ । अर्थात् – ज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध ज्ञानको ही शरीर कह देंगे तो फिर शरीरधारी आत्मा उनके यहां क्या माना जायगा ? बौद्ध ज्ञान आत्माको स्वतन्त्रतत्त्व मानते नहीं हैं।
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तदेव ज्ञानमशरीरिव्यावृत्त्या शरीरी स्यादशरीरव्यावृत्त्या शरीरमिति सुगतस्य शुद्धज्ञानात्मनः शरीरत्वं, शरीरित्वं च विभागेन व्यवतिष्ठते कल्पनासामर्थ्यादिति न मंतव्यं, तद्व्यावृत्तेरेव तत्रासंभवात् | सिद्धे हि तस्य शरीरत्वे वा शरीरिणः शरीराच्च व्यावृत्तिः सिध्येत् तत्सिद्धौ च शरीरित्वमशरीरित्वं चेति परस्पराश्रयान्नैकस्यापि सिद्धिः । ततो न स्वाभाविकं शरीरं नाम ।
बौद्ध जनोंका यह मन्तव्य है कि ज्ञान पदार्थ तो उपाख्याओंसे रहित है, उसमें कोई वस्तुभूत पदार्थ नहीं ठहरता है। घटत्व, पटत्व, कोई पदार्थ नहीं है । अघटपनकी व्यावृत्ति ही घटत्व है, और अपटपनकी व्यावृत्ति पटत्व है, पटत्व कोई सदृश परिणाम या जाति अथवा सखण्डोपाधि धर्म नहीं है। इसी प्रकार बुद्ध भगवान्के शरीर और शररिपिन कोई धर्म नहीं है। ज्ञानाद्वैतवादियोंके यहां वह ज्ञान ही शरीरीरहितपनेकी व्यावृत्ति करके शरीरी कहा जाता है और शरीररहितपनकी व्यावृत्ि करके वह ज्ञान ही शरीर कह दिया जाता है । इस प्रकार शुद्ध ज्ञानस्वरूप बुद्ध भगवान् के शरीर प और शरीरीपन ये दो धर्म विभाग करके व्यस्थाको प्राप्त हो जाते हैं । अन्यापोह या अतद्व्यावृत्तिकी 1 कल्पनाकी सामर्थ्यसे वस्तुभूत नहीं होते हुये धर्म भी ज्ञानमें गढ लिये जाते हैं । जगत् में भी यही व्यवस्था करनी पडेगी कि धनवान्का अर्थ " दरिद्र नहीं " इतना ही है। पण्डितका अर्थ " मूर्ख नहीं ” एतन्मात्र है । पूर्ण धनवान् होना या पूर्ण पण्डित होना तो बहुत बडी बात है । सुंदर बलवान, कुलीन, पुष्ट, व्याख्याता, स्वादु भोजन, आदि प्रशंसनीय पदार्थोंका अर्थ केवल अन्यापोह मात्र है । अब आचार्य कहते हैं कि यह तो बौद्धों को नहीं मानना चाहिये । क्योंकि उसका स्वभाव माने विना उससे भिन्नकी व्यावृत्ति हो जानेका ही उसमें असम्भव है । कारण कि उस ज्ञानको शरीरीपना यदि गांठका सिद्ध होता तब तो शरीरीकी शरीरसे व्यावृत्ति सिद्ध हो जाती और उस व्यावृत्तिके सिद्ध हो जाने पर शरीरीपन और अशरीरीपन सिद्ध होते। इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष हो जानेसे एक की भी सिद्ध नहीं
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